विश्व महिला दिवस: हिंदी सिनेमा में 7 दशक के 7 महिला किरदार

सन 1913 में भूख और रोजमर्रा की जरूरतों की मारी दुर्गाबाई कामत ने जब पहली बार फिल्मों में काम करने के लिए हामी भरी तो यह एक ऐतिहासिक अवसर था. इसलिये क्योंकि उसके पहले तक सिनेमा में स्त्री किरदार पुरुष ही निभाते आये थे.
तब से अब तक हिंदुस्तानी सिनेमा ने लंबी दूरी तय कर ली है. फिल्मों में महिलाओं के चित्रण की बात करें तो सही मायनों में कहा जा सकता है कि सिनेमा ही हमारे समाज का दर्पण है. मदर इंडिया की राधा से क्वीन की रानी तक सिनेमा में स्त्री किरदारों ने कई रूप बदले हैं. सिनेमा के स्त्री चरित्र का एक सफर:
राधा, मदर इंडिया (1957)
सन 1957 में आई महबूब खान की फिल्म मदर इंडिया में नरगिस का निभाया राधा का किरदार अगली कई पीढिय़ों तक हिंदी सिनेमा में स्त्री भूमिकाओं पर भारी पड़ता रहा. राधा का पति अपनी जिम्मेदारियों से घबराकर घर छोड़ गया है. गांव के साहूकार सुक्खी लाला (मोतीलाल की निभायी सर्वश्रेष्ठ भूमिकाओं में से एक) की उस पर बुरी नजर है. लेकिन वह तमाम कठिनाइयों का सामना करते हुए अपने दो बेटों को जवान करती है. इतना ही नहीं उनमें से एक बेटा जब भटक जाता है तो राधा उसकी जान भी ले लेती है. पहली बार हिंदी सिनेमा को एक ऐसी स्त्री मिली जिसने अपना स्त्रीत्व गंवाये बिना तमाम मुसीबतों के बावजूद डिगी नहीं.
छोटी बहू, साहब बीवी और गुलाम (1962)
बिमल रॉय के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित अबरार अल्वी की बनाई यह फिल्म दरअसल एक सामंती परिवार के विघटन के दौर में परिवार की स्त्री के दारुण दुख की कथा कहती है. जमींदार परिवार की स्त्रियां जहां अपने पतियों की बेजारी को नियति मानकर साड़ी गहनों में ही खुश रहा करतीं वहां छोटी बहू प्रतिरोध करके सबको चौंका देती है. अपने पति को रिझाने के लिये वह हर संभव कोशिश करती है. एक घरेलू स्त्री के सेक्स अपील वाले इस किरदार को मीना कुमारी ने अभूतपूर्व कुशलता से निभाया.
लक्ष्मी, अंकुर (1974)
देश में जाति व्यवस्था पर प्रहार करने वाली सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में अंकुर का नाम लिया जा सकता है. श्याम बेनेगल की इस फिल्म में शबाना आजमी ने लक्ष्मी नामक एक दलित स्त्री का किरदार निभाया है जो अपने जमींदार मालिक के साथ हमबिस्तर होती है और गर्भवती भी हो जाती है. लक्ष्मी बहुत खामोशी से लेकिन दृढ़ अंदाज में अपने मालिक को उसके पाखंड और कमजोरी का अहसास कराती है. यह शबाना आजमी की पहली फिल्म थी और इसके लिए उनको राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. अंकुर फिल्म ने परदे के भीतर और बाहर लक्ष्मी और शबाना के रूप में दो जबरदस्त किरदार हमें दिये.
सोनबाई, मिर्च मसाला (1987)
केतन मेहता की फिल्म मिर्च मसाला में सोनबाई नामक एक ग्रामीण स्त्री की भूमिका में स्मिता पाटिल ने अभिनय के नए मानदंड स्थापित कर दिए. दुखद बात यह है कि स्मिता खुद इस फिल्म को देखने के लिए जिंदा न रह सकीं. सोनबाई पर कर वसूली करने वाले अधिकारी की बुरी नजर है. उससे बचते-बचाते वह स्थानीय मिर्च फैक्टरी में शरण लेती है. मिर्च फैक्टरी में काम करने वाली तमाम स्त्रियां उसका साथ देती हैं. अपने बचाव में वे लाल मिर्च पावडर का प्रयोग करती हैं. इस पीरियड फिल्म में लाल मिर्च पावडर प्रतिरोध का एक प्रतीक बनकर उभरता है.
फूलन देवी, बैंडिट क्वीन (1994)
मैं ही फूलन देवी हूं बहनचो... शेखर कपूर निर्देशित फिल्म बैंडिट क्वीन का यह संवाद एक झटके में आपको चंबल के उस इलाके और उस कालखंड में पहुंचा देता है जहां फूलन देवी डकैत बनने पर मजबूर हुई. माला सेन की किताब पर आधारित और सीमा विश्वास अभिनीत यह फिल्म एक सामान्य ग्रामीण स्त्री के डकैत बनने की समाजशास्त्रीय परिस्थितियों, सामूहिक बलात्कार और सामूहिक अपमान का भयावह रूप से यथार्थ चित्रण करती है. बैंडिट क्वीन शायद पहली ऐसी फिल्म होगी जिसमें बलात्कार के दृश्य देखकर दर्शक सिसकारियां नहीं मार पाए होंगे, वे गरदन झुकाए, आंखे नीची किए बाहर निकले होंगे कि कहीं कोई उनमें छिपे बलात्कारी का चेहरा पहचान न ले.
अदिति, अस्तित्व (2000)
महेश मांजरेकर की फिल्म अस्तित्व की नायिका अदिति जिस तरह अपने अस्तित्व को पहचानती है, वह हिंदी सिनेमा मेंं एक नया मोड़ था. अस्तित्व विवाहेत्तर संबंधों की फिल्म नहीं है, इस फिल्म का संबंध पुरुषवादी सोच मात्र से भी नहीं है. यह एक उपेक्षित स्त्री के अपने अस्तित्व को तलाशने की कहानी है. परिस्थितियां कुछ ऐसी बनती हैं कि वह एक बार विवाहेत्तर संबंध बना लेती है और गर्भवती हो जाती है. उसके पति को इस बात का पता 27 साल बाद चलता है. पति के अहम को ठेस लगती है. अदिति कुछ ऐसे प्रश्न खड़े करती है जिनके जवाब उसके पति तो क्या पूरे समाज के पास नहीं हैं.
रानी मेहरा, क्वीन (2014)
सन 2014 में आई विकास बहल की फिल्म क्वीन ने लड़कियों को बताया कि दरअसल क्वीन होने के लिये किसी राजा की नहीं बल्कि अपने दिल की रानी बनना जरूरी है. हीरोइन रानी मेहरा की शादी टूटती है, वह ब्रेकअप के गम से निकलने के लिये फ्रांस जाती है. अचानक वह पाती है कि इस दुनिया में तो सारे कमरे मिसेज सिंह, मिसेज शर्मा या मिसेज चौबे के नाम पर बुक हैं.
वह अकेले दुनिया घूमती है, अपने ब्वायफ्रैंड को गलती का अहसास होने पर भी दोबारा जिंदगी में दाखिल नहीं होने देती. वह अपन आजादी का जश्न मनाती है. हिंदी सिनेमा में महिला किरदारों ने सात दशक में इतनी दूरी तय की है कि अब पति या प्रेमी द्वारा ठुकराये जाने पर वह खुद को कसूरवार मानते हुए आंसू नहीं बहाती हैं बल्कि अपनी जिंदगी को आगे बढ़ाती हैं.
आश्चर्य नहीं कि क्वीन हाल के दिनों में लड़कियों में सबसे लोकप्रिय फिल्म है.
वर्ष 2010 के बाद के समय को नारी चेतना संपन्न फिल्मों के लिहाज से व्यापक बदलाव आया है. इस दौरान, डर्टी पिक्चर, कहानी, इंग्लिश विंग्लिश, हाईवे, एन एच 10 जैसी तमाम फिल्में आईं जिन्होंने हिंदी फिलमों में महिलाओं के पारंपरिक स्वरूप को बार-बार ध्वस्त किया. यह सिलसिला लगातार जारी है.