जंगल में मोर नाचने जैसा अनदेखा जंगल का दर्द भी है

सरकारों का काम गजब का होता है. जब संवेदनाए बरसाती हैं तो छप्पड़ फाड़कर बरसाती हैं. इतना कि मुर्दे में भी जान आ जाए. जैसे बिना आईपीएल के मैच मिले सवाई मानसिंह स्टेडियम पर करोड़ो रुपए खर्च कर दिए. और जब संवेदनहीन होती है तो एसी कि जिंदा आदमी लाश बन जाए, पर उसे खाने की बात तो दूर पीने का शुद्ध पानी तक मुहैया नहीं कराती. वैसे ही जैसे जयपुर के विमंदित बालगृह में हुआ.
विभाग की नींद तब खुली जब 12 बच्चों के प्राण पखेरु उड़ गए. दर्जनों बीमार हो गए. चार दिन की चांदनी के बाद वहां फिर कब 'अंधेरी रात' आ जाए, किसी को नहीं पता. जयपुर के बाहर राज्य के अन्य हिस्सों को विमंदित बाल गृहों में अपने बच्चे आज भी अधेरी रात में रह रहे हों तो किसे पता?
जैसे विमंदित बच्चे अपना दु:ख दर्द नहीं बता पाते वैसा ही हाल पशु-पक्षियों का है. खुले में तो उनके लिए पानी के परिंडे समाज बांध भी देता है लकिन जंगलों में कौन जाए? बनाने को तो सरकार ने उनके नाम पर बड़े-बड़े राष्ट्रीय पार्क और अभ्यारण्य बना दिए लेकिन व्यवस्थाओं के नाम पर वहां कुछ नहीं है. फिर चाहे वह रणथम्भौर हो या सरिस्का.
बनाने को तो सरकार ने जानवरों के नाम पर बड़े-बड़े राष्ट्रीय पार्क बना दिए लेकिन व्यवस्थाओं के नाम पर वहां कुछ नहीं है
यही हाल डेजर्ट नेशनल पार्क का है. चम्बल के पानी ने केवलादेव के पक्षियों को जरुर मरने से बचा लिया अन्यथा सूखे अजान और पांचना की राजनीति तो उन्हें कभी का मार डालती. साइबेरियाई सारस ने मुंह मोड़ा तो विदेशी पर्यटक भी दूर होते जा रहे हैं.
'नाम बड़े-दर्शन छोटे' की तर्ज पर इन पार्कों में जानवरों के लिए ज्यादा कुछ नहीं है. जो है उसका ज्यादा हिस्सा नेता-अफसरों और उनसे भी ज्यादा वन्यजीव विशेषज्ञों की सेवा-चाकरी में खर्च हो जाता है. विमंदित बच्चों की तरह इन पार्कों में रहने वाले पशु-पक्षी भी भूख प्यास से प्राण छोड़ दे तो वन मंत्री राजकुमार रिणवां या उनके महकमे को क्या फर्क पड़ता है. वे भी अपने साथी पुराने मंत्री प्रो. संवरलाल की तरह कह देंगे-आया है सो जाएगा. उन्होंने इंसानों के लिए कहा, ये बेजुबानों के लिए कह देंगे.
रणथम्भौर और सरिस्का दोनों के हाल तो ज्यादा ही खराब हैं. वहां कितने बाघ हैं कोई नहीं जानता. जो गिनती है, उस पर भरोसा विभाग के ही लोग नहीं करते. विशेषज्ञ भी 'हां पक्ष' और 'ना पक्ष' की तरह बंटे हुए हैं. मलाई वालों को लगता है कि सब काम शानदार है. दूसरों को लगता है कि कुछ भी ठीक नहीं है. उन्हें डर है कि जैसा कुछ साल पहले सरिस्का में हुआ, यदि कुछ साल बाद ये पार्क फिर 'बाघविहीन' हो जाएं तो आश्चर्य नहीं. दोनों ही जगह टाइगर को बच्चे की तरह पालने वाले कैलाश सांखला जैसे अफसर तो अब हैं नहीं. रही बात वन मंत्री की तो कोई नहीं जानता कि वन मंत्री आखिरी बार इन पार्कों का हाल देखने कब आए?
बारिश के कारण विभाग के पाप धुल गए नहीं तो कुछ ही दिन में जगह-जगह जानवर मर पड़े नजर आते
बढ़ती गर्मी का सबसे ज्यादा असर पानी पर है. रणथम्भौर हो या सरिस्का, केवलादेव हो या डेजर्ट नेशनल पार्क सभी जगह पानी नहीं के बराबर हैं. सरिस्का में तो पिछले दो दिनों की बरसात से कुछ जगह पनी भी भरा दिखता है. लोग कह रहे हैं कि विभाग के पाप धुल गए नहीं तो कुछ ही दिन में जगह-जगह जानवर मर पड़े नजर आते.
रणथम्भौर के खण्डारा, कुण्डेरा और फलौदी क्षेत्रो में बताते हैं, पानी का संकट ज्यादा है. ताल छापर के हरिणों की कहानी भी कम नहीं है. वहां पानी तो जैसे-तैसे पूरा पड़ रहा है लेकिन उनकी संख्या क्षेत्र के हिसाब से तिगुनी हो गई है. ढ़ाई हजारों के करीब. भागते हैं तो बीच में पड़ने वाले राजमार्ग पर वाहनों की चपेट मं आ जाते हैं. डेजर्ट पार्क का क्षेत्र इतना बड़ा है कि, अफसरों को ही पार्क की सीमा का पता नहीं चलता. पानी के अलावा पर्यटन की भूख भी जंगल की बड़ी समस्या है.
रणथम्भौर का तो हाल यह है कि, कम से कम तीन दर्जन होटल ऐसे हैं, जिनके बारे में यह कह पाना मुश्किल है कि, वे पार्क में हैं या बाहर. उनमें से कई ने तो तो मांस के टुकड़े डालकर बाघों को पाल रखा है. इसी लालच में वहां मनचाहा पैसे देने वाले पर्यटक भी खूब पहुंच जाते हैं.
इन पार्को में दिनभर घूमने वाली जिप्सी कैंटर भी जानवरों को चैन से रहने नहीं देते हैं
इन पार्को में दिनभर घूमने वाली जिप्सी कैंटर भी जानवरों को चैन से रहने नहीं देते हैं. कहते हैं कई जिप्सियां तो होटल वालों न ही दौड़ा रखी हैं. वैसा ही रंग वैसा ही मॉडल. कई बार तो बरसात के मौसम में भी ये जिप्सियां दौड़ती रहती है. और इंसान. वहां रहने वाली आबादी तो 365 दिन उनसे टकराती है. मौका पड़े तो सुरक्षागार्ड भी शिकार नहीं शिकारी के साथ ही नजर आते हैं. वैसे भी हर पार्क में, प्रशिक्षित सुरक्षा गार्डो की खूब कमी है. जो हैं वे जानवरों के बजाय उनकी 'स्पाटिंग' कराने के धंधे में ज्यादा लगे रहते हैं.
जंगल की कटाई तो जैसे सब मिलकर कराते हैं. जबकि पेड़ बचते हैं तो हरियाली नहीं औषधि भी बचती है. नहीं तो हम उनके लिए मोहताज हो जाएंगे. मारे-मारे फिरेंगे. इससे पहले कि, समस्याएं और बढ़ें, फिर किसी उस्ताद को नरभक्षी घोषित कर अपने क्षेत्र से बाहर करने की नौबत आए. वन मंत्री को अपनी सरकारी गाड़ी का मुंह उन जंगलों और जानवरों की तरफ मोड़ना चाहिए, जिनके लिए उनका विभाग है. वे जंगल की ओर चले तो पीछे-पीछे अफसर भी चल देंगे. तब शायद जंगल और जानवर दोनों बच जाएं. अन्यथा बजट तो पूरा खर्च हो जाएगा. लेकिन जंगल और जानवर मुश्किल में ही पड़े रहेंगे.