विश्व पर्यावरण दिवस: पारिस्थितिक तबाही को रोकना चाहते हैं? पक्षियों के संरक्षण से शुरुआत कीजिए

पृथ्वी, अग्नि, वायु और जल. हमारे वातावरण के इन चार तत्वों को एक साथ मिला लीजिए और परिणाम में आपके सामने होगा एक पक्षी. हाल ही में यह साबित हो गया है कि पक्षी वास्तव में डायनासोर हैं जो टायरानोसोरस रेक्स के निकट संबंधी हैं.
यह समझ में आने वाली बात भी है. जब प्रकृति की बात आती है तो पहला स्थान पक्षियों का ही आता है. वे हमारे निकटतम हैं- भारत में ही उनकी 1300 से अधिक प्रजातियां हैं. और वे लगभग हर जगह मौजूद हैं, बगीचे में, आपके बरामदे में चहचहाते हुए, शहर के चौकों पर. संभव है कि बच्चे किसी भी जानवर को देखने से पहले कौवे, कबूतर या गौरया को देख लें.
यह मुनासिब ही है कि हमारी खिड़की के बाहर कूकने वाली कोयल उस प्रजाति का हिस्सा है, जो लाखों वर्षों से अस्तित्व में है, इंसान से भी पहले से. तो हम अपनी इन प्रतिष्ठित प्रजातियों की रक्षा करने में इतने बुरे साबित क्यों हो रहे हैं?
आप गौर करें कि ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (उल्लू की एक प्रजाति) का नाम ही भारत (इंडिया) के नाम पर रखा गया है. ऐसा इसलिए है क्योंकि यह हमेशा, इतिहास से लेकर आज तक यहां पाया जाता रहा है, हमारे देश भारत में. लेकिन दुर्भाग्य देखिए, अब इनकी संख्या धरती पर सिर्फ 150 रह गई है.
यह वही पक्षी है, जिसका नाम हमारे देश के नाम पर रखा गया है और जो कभी 11 भारतीय राज्यों में पाया जाता था. आज यह अपने अस्तित्व के लिए पूरी तरह हम पर निर्भर है. ग्रेट इंडियन बस्टर्ड को एक खास तरह के रहवास की आवश्यकता होती है- ऐसे घास के मैदानों की जो कृषि क्षेत्रों में छितराए हों, सूखे झाड़ियों वाले मैदानों की.
ड्रोन की मदद से लगाए जाएंगे एक साल में 100 करोड़ पौधे
इसे जैविक (ऑर्गेनिक) मैदानों की जरूरत होती है क्योंकि यह भी मोर की तरह मिट्टी में मौजूद कृत्रिम रसायनों के कारण मौत का ग्रास बन जाते हैं. ठीक उसी तरह जैसे जहरीले रसायनों से दम तोड़ चुके मोरों के कंकाल बुरी तरह जहां-तहां खेताें में फैले मिलते हैं.
इन्हें घोंसले बनाने के लिए ऐसे अबाधित क्षेत्रों की जरूरत होती है जहां कुत्तों, इंसानों, लोमड़ियों और बिल्लियों आदि की पहुंच ना हो.
ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के मामले में सिर्फ राजस्थान उम्मीद की एक किरण है. वहां थार के शानदार रेगिस्तान में लगभग 80 बस्टर्ड जिंदा बचे हैं. यदि हम इस परिंदे का अस्तित्व बनाए रखना चाहते हैं तो राजस्थान को पूरे भारत के लिए मार्गदर्शक बनना होगा.
इस पर काम शुरू हो चुका है. इस पक्षी के प्रजनन के लिए इलाके सुरक्षित कर दिए गए हैं और ऐसी योजना भी है कि इसका संरक्षित प्रजनन कराने की सुविधा उपलब्ध कराई जाए. ठीक इसी तरह की योजना ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के चचेरे भाई हौबरा बस्टर्ड के लिए भी अपनाई जा चुकी है. अब भी बहुत कुछ करने की जरूरत है.
इसमें बिजली के उन तारों की पहचान करने या उन्हें हटाने की भी जरूरत है जिनमें फंसकर ये अक्सर अकाल मौत का शिकर होते रहते हैं.
अगर हम सबने मिलकर कदम नहीं उठाए तो विलुप्ति की कगार पर खड़ा ग्रेट इंडियन बस्टर्ड भी बच्चों की एनसाइक्लोपीडिया की किताबों में डायनासोर की श्रेणी में शामिल हो जाएगा.
एक और पक्षी, जिसे हम सदा से देखते आए हैं, लेकिन आजकल शायद ही कहीं नजर आता है, वह है घरेलू गौरैया.
क्या आप घरेलू गौरैया के साथ पले-बढ़े हैं? संभावना है कि हर भारतीय ने गौरैया देखी होगी. जैसा कि इसका नाम ही बताता है, यह इंसानों के आसपास ही अपने घोंसले बनाती और रहती है.
आजकल यह हमें दिखाई नहीं दे रही. क्या यह उसके लिए अशुभ संकेत है? जी हां, है. लेकिन मैं यह तर्क देना चाहूंगी कि यह हमारे लिए भी उतना ही अशुभ संकेत है. उस चिड़िया ने चहचहाना बंद कर दिया है, इसका स्पष्ट अर्थ है कि हमारे पर्यावरण में कुछ न कुछ गड़बड़ है.
हमारे बिल्कुल आसपास के क्षेत्रों में ही रसायनों का स्तर बहुत अधिक हो गया है. यह कीड़ों को मार रहा है और हमारे खान-पान में घुसता जा रहा है. डीडीटी के प्रदूषण के कारण शानदार अमेरिकी बाल्ड ईगल भी इतने पतले कवच या पतली परत वाले अंडे देने लगा था कि उन्हें सेकर उनसे बच्चे पैदा नहीं किए जा सकते थे.
जब डीडीटी को चरणबद्ध तरीके से बाहर किया गया तो इसने न केवल उस ईगल को बचा लिया, बल्कि साथ ही मनुष्य की सेहत बचाए रखने का रास्ता भी खोला.
गौरैया की लगातार घटती संख्या बता रही है कि हमारे जीवन में, यहां तक कि हमारे शरीर में भी कितना जहर घुल चुका है.
शहरी शोर भी गौरैया को प्रभावित कर रहा है. और हमारे शहरों में तो गाड़ियों के हॉर्न, निर्माण कार्यों से उठता शोर, जगराते और लाउड स्पीकर वाली कभी न खत्म होने वाली शादियां सब एक साथ मिलकर कानफोड़ू और गगनभेदी शोर वाला माहौल बना डालते हैं.
हमारे खेतों, बगीचों और घरों में कई तरह के जहरीले रसायन घुल गए हैं और हमारे जीवन में बेहद शोर घुस गया है. आइए इस विश्व पर्यावरण दिवस पर हम उनमें कटौती कर उन्हें अपने जीवन से बाहर करने की प्रतिज्ञा लें.
यही वह बात है जो इस धरती के सबसे प्राचीन प्रवासी छोटे-छोटे पक्षी हमें समझाना चाहते हैं इससे पहले कि वे जहरीली अकाल मौत मर जाएं. पृथ्वी. अग्नि. वायु और जल. क्या हम इन सबको बचा सकते हैं?
आइए शुरुआत पक्षियों को बचाने से कीजिए. यही वह तरीका है, जिससे हम अपने आप को भी बचा सकते हैं.
यहां व्यक्त विचार लेखक के निजी. जरूरी नहीं कि संस्थान भी इनसे सहमत हो. नेहा सिन्हा बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी से जुड़ी हैं.
First published: 5 June 2016, 12:41 IST