के चंद्रशेखर राव: 15 साल में आम नेता से क्षेत्रीय क्षत्रप बनने का सफ़र

करीब 15 पहले सफेद शर्ट और पैंट पहने एक दुबले-पतले नेता ने एक नई पार्टी की नींव रखी. उस समय शायद ही किसी ने सोचा होगा कि इस पार्टी का राजनीतिक भविष्य उज्ज्वल है. उस नेता को न तो जोरदार भाषण देने के लिए जाना जाता था, न ही उसे करिश्माई समझा जाता था. नई पार्टी बनाने से पहले भी वो पर्दे के पीछे रहकर ही राजनीति किया करता था.
आज वही के चंद्रशेखर राव तेलंगाना राज्य के पहले मुख्यमंत्री हैं. वो अपने प्रशंसकों के बीच केसीआर के रूप में लोकप्रिय हैं.
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केसीआर ने अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत कांग्रेस से की थी. लेकिन वो 1983 में एनटी रामाराव की तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) में चले गए. उसी साल वो विधानसभा का चुनाव लड़े लेकिन हार गए. उसके बाद वो कोई विधानसभा चुनाव नहीं हारे.
रामा राव के बाद पार्टी की कमान चंद्रबाबू नायडु के हाथ में आई. जब 1999 आंध्र प्रदेश में टीडीपी की सरकार बनी तो केसीआर को मंत्री नहीं बनाया गया.
27 अप्रैल, 2001 को केसीआर ने तेलंगाना के गठन के मकसद से नई पार्टी की आधारशिला रखी थी
केसीआ के लिए टीडीपी का मुकाबला करने के लिए जरूरी साधन और पहुंच का अभाव था इसलिए उन्होंने अपने लिए एकमुखी भावनात्मक लक्ष्य तय किया. 27 अप्रैल, 2001 को उन्होंने नए तेलंगाना राज्य के गठन के मकसद से नई पार्टी की आधारशिला रखी. पार्टी का नाम रखा गया, तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस).
जल्द ही केसीआर ने दिखा दिया कि राजनीतिक दांवपेंच में वो बेहद चतुर हैं. खास तौर पर उन्होंने जिस तरह कांग्रेस का इस्तेमाल टीआरएस के प्रसार और प्रभाव को बढ़ाने के लिए किया उससे उनके विपक्षी भी चकरा गए.
उन्होंने कांग्रेस को अलग तेलंगाना राज्य की घोषणा के लिए मना लिया और इसका श्रेय खुद ले लिया. कांग्रेस ये मान रही थी कि केसीआर आखिरकार टीआरएस का कांग्रेस में विलय कर देंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अपना ज़मीनी आधार बढ़ाने के बाद उन्होंने कांग्रेस से किनारा कर लिया.
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नई पार्टी बनाने से नए राज्य के गठन और उसके पहले सीएम बनने तक केसीआर का सफर काफी दिलचस्प रहा है.
टीडीपी सरकार में मंत्री न बनाए जाने के बाद केसीआर राज्य के कई बुद्धिजीवियों से मिले और जानना चाहा कि क्या तेलंगाना राज्य की मांग को दोबारा उठाने के लिए राज्य में पर्याप्त भावनात्मक आधार है.
1969 में तेलंगाना राज्य की मांग के लिए हिंसक प्रदर्शन का राज्य सरकार ने बहुत ही कठोरता से दमन किया था. उसके बाद ये मुद्दा दोबारा सिर नहीं उठा सका.
केसीआर ने नई पार्टी बनाने से पहले एक सर्वे कराया जिसके नतीजे उनके लिए उत्साहवर्धक थे. उन्होंने राज्य विधानसभा के उपाध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर नई पार्टी टीआरएस बना ली.
उसके बाद उन्होंने एक एक कदम फूंक कर रखा. सबसे पहले उन्होंने राज्य की सिद्धिपट सीट पर 2001 में उप-चुनाव लड़ा. जिसमें उन्होंने 56 हजार वोटों से जीत हासिल की.
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उसके बाद उन्होंने स्थानीय निकाय चुनावों में उम्मीदवार उतारने शुरू किया. हालांकि उन्होंने उन नगरपालिकाओं में प्रत्याशी उतारे जहां उन्हें जीत की उम्मीद थी.
साल 2004 में उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया. उस साल उन्होंने तेलंगाना इलाके की 46 विधान सभा सीटों पर चुनाव लड़ा और 26 पर जीत हासिल की.
मनमोहन सिंह सरकार में उन्हें मंत्री बनाया गया लेकिन धूप-छांव भरे रिश्ते के बाद उन्होंने आखिरकार मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया.
उसके बाद आंध्र प्रदेश की वाईएस राजशेखर रेड्डी(वाईएसआर) सरकार के मंत्रिमंडल में शामिल टीआरएस के छह नेताओं ने 'दमघोंटू माहौल' के चलते इस्तीफा दे दिया.
साल 2009 के आम चुनाव से पहले टीडीपी ने कांग्रेस के खिलाफ महा-गठबंधन बनाने की बात की. सीपीआई औ सीपीएम के साथ टीआरएस भी इस महा-गठबंधन में शामिल हो गई. हालांकि वाईएसआर राज्य में दोबारा बहुमत पाने में सफल रहे. ये जरूर है कि पिछली बार से उनकी सीटें घट गई थीं.
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वाईएसआर की 2 सितंबर 2009 को एक हेलीकॉप्टर दुर्घटना में मौत हो गई. केसीआर और राज् के राजनीति के लिए ये दुर्घटना निर्णायक मोड़ साबित हुई.
उस समय तक टीआरएस की पहुंच कुछ जिलों तक ही सीमित थी. उत्तरी और दक्षिणी तेलंगाना में उसका प्रभाव बहुत कम था.
वाईएसआर की मौत से पैदा हुए राजनीतिक निर्वात का लाभ लेते हुए केसीआर ने तेलंगाना के गठन के लिए अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल की घोषणा कर दी. वाईएसआर तेलंगाना के गठन के धुर विरोधी थे.
केसीआर ने टीआरएस को विकास के लिए कांग्रेस का बखूबी इस्तेमाल किया
उनकी भूख हड़ताल के चलते यूपीए-2 ने 9 दिसंबर 2009 को तेलंगाना के रूप में नए राज्य के गठन की प्रक्रिया शुरू करने की घोषणा कर दी.
राज्य का गठन आखिरकार 2014 में हुआ और केसीआर को इसका 'निर्माता' माना गया.
नए राज्य के गठन के बाद टीआरएस को राज्य की 119 विधान सभा सीटों में से 63 पर जीत मिली. जाहिर है उन्हें बहुत मामूली बहुमत मिला था.
उन्होंने विपक्षी विधायकों पर डोरे डालने शुरू कर दिए. नतीजतन, टीडीपी के 15 में से 12 विधायक टीआरएस में मिल गए. कांग्रेस के 5 और वाईएसआर कांग्रेस तथा बीएसपी के दो-दो विधायकों ने भी टीआरएस को अपना लिया.
नगरपालिका चुनाव में टीआरएस ने कांग्रेस और टीडीपी को जबरदस्त मात दी. ग्रेटर हैदराबाद नगर पालिका की कुल 150 सीटों में मात्र तीन सीटों पर विपक्षियों को जीत मिल सकी.
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वामपंथी दलों के सिकुड़ते आधार और बीजेपी के अस्पष्ट रवैये के चलते राज्य में केसीआर के सामने कोई विपक्ष नहीं दिख रहा है.
बहरहाल, केसीआर के सामने इस समय कई व्यवाहरिक समस्याएं खड़ी हैं. चुनाव के दौरान उन्होंने जनता से जो वादे किए थे उनको पूरा करना उनके लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है.
उन्होंने सिंचाई परियोजनाओं की समीक्षा, पीने के पानी के लिए वाटर ग्रिड का विकास, 46 हजार वाटर टैंकों को आपस में जोड़ने, सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह में भारी बढ़ोतरी और हैदराबाद शहर के पुनर्विकास का वादा किया था. न सबके के लिए उन्हें लाखों करोड़ रुपये चाहिए लेकिन राज्य की मौजूदा आय इसके लिए काफी नहीं.
केसीआर की उपलब्धियों के मूल्यांकन के लिए ये वक्त सही नहीं है क्योंकि वो सक्रिय राजनीति में बने हए हैं. आने वाले वक्त में वो अपने राज्य की जमीनी मुश्किलों को किस तरह हल करते हैं, इसी से इतिहास में उनकी असली जगह तय होगी.