आजीवन कारावास पर सुप्रीम कोर्ट का देर से आया दुरुस्त फैसला

भारतीय अदालतें लम्बे समय से दुविधा का शिकार थीं कि अगर किसी जघन्य अपराध में किसी व्यक्ति को आजीवन कारावास की सजा मिल चुकी है तो क्या उसे उसके बाद किसी अन्य मामले में फिर से आजीवन कारावास की सजा दी जा सकती है.
मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ इस मसले पर अंतिम नतीजे पर पहुंच गई. अदालत ने कहा कि किसी दोषी को एक के बाद एक दो बार या अधिक बार आजीवन कारावास नहीं दिया जा सकता. यानी एक से अधिक मामलों में आजीवन कारावास भुगत रहे दोषी की सभी सजाएं एक साथ चलेंगी.
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देश की सर्वोच्च अदालत मुथुरामलिंगम मामले पर फैसला सुना रही थी. मुथुरामलिंगम अपने ही परिवार के आठ सदस्यों की हत्या का दोषी है. मरने वालों में उसकी पत्नी और एक साल का बच्चा भी था.
मदुरई की ट्रायल कोर्ट ने मुथुरामलिंगम को हत्या की कोशिश के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाते हुए हर हत्या के लिए अलग-अलग आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी.
इस मसले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने निचली अदालत के फैसले को दोषपूर्ण पाया और ट्रायल कोर्ट द्वारा सुनाई गई सजा को पलट दिया. इस पीठ में मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर, न्यायाधीश इब्राहिम कैफुल्लाह, एके सीकरी, एसके बोबडे और आर भानुमति शामिल थे.
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संविधान पीठ ने अपने फैसले में सीआरपीसी के धारा 31 और धारा 31(2) का हवाला देते स्पष्ट किया कि जिस व्यक्ति को आजीवन कारावास की सजा मिली हो उसे अलग-अलग कई सजाएं नहीं दी जा सकतीं.
संवेदनशील मसला
साल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने दुर्योधन राउत के मामले में ऐसा ही फैसला दिया था. साल 2015 में उच्चतम अदालत ने अपने ही 2014 के फैसले के हवाले से श्रीहरन मामले में कहा कि आजीवन कारावास के तहत दोषी को अपनी आखिरी सांस जेल में लेनी चाहिए, बशर्ते उसे क्षमा न दे दी जाए या उसकी सजा कम न कर दी जाए.
देश में महिलाओं के संग होने वाले अपराधों की बढ़ती संख्या के चलते कानून के जानकार इस मसले पर बंटे हुए हैं.
सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता करुणा नंदी कहती ने ट्विटर पर सर्वोच्च अदालत के फैसले को 'वकीलों का चुटकुला' बताया है.
क्रिमिनल कानून मामलों के जानकार एमए राशिद ने भी अपने एक लेख में ऐसा ही नजरिया पेश किया. राशिद ने सुप्रीम कोर्ट के 2014 के फैसले की आलोचना करते हुए तर्क दिया कि किसी को लगातार दो आजीवन कारावास न देना एक अपवाद है, न कि कोई कानून. उन्होंने अपने तर्क के समर्थन में कई पुराने मामलों का हवाला दिया है.
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जबकि कॉमनवेल्थ ह्यूमन इनिशिएटिव के एक सूत्र ने नाम न देने की शर्त पर कहा कि सजा देने से जुड़े कानून और नीतियों पर अपराध की गंभीरता के आधार पर फैसला करना चाहिए.
कुछ विश्लेषकों का कहना है कि पिछले कुछ समय से कई मामलों में अदालत का फैसला आने से पहले ही मीडिया में जिस तरह उन्माद का माहौल बनाया जाता है उसे देखते हुए ऐसे मामलों में पर्याप्त गंभीर और स्पष्ट नजरिए की जरूरत है. ऐसा न हो कि कथित जनमत के दबाव में किसी के बुनियादी अधिकारों का हनन हो और कानून न्याय देने से चूक जाए.
भारत को चाहिए कि ब्रिटेन और अमेरिकी की तरह वो भी इस मसले पर ठोस दिशा-निर्देश बनाए.
First published: 21 July 2016, 8:33 IST