कोयला घोटाला: एचसी गुप्ता या उन जैसे ईमानदार अधिकारियों को बचाना कानून की जिम्मेदारी है

- पूर्व कोयला सचिव एचसी गुप्ता ने हाल ही में मीडिया की सुर्खियां बटोरी हैं. गुप्ता फिलहाल कोयला ब्लॉक घोटाले में मुकदमे का सामना कर रहे हैं. गुप्ता के खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 के तहत मुकदमा चल रहा है.
- पहले भी सरकार ने ईमानदार अधिकारियों को बचाने के लिए इन प्रावधानों में फेरबदल की सिफारिश की थी. सरकार ने यह सुनिश्चित करने की कोशिश की संयुक्त सचिव और उससे ऊपर के अधिकारियों को जांच के दायरे में लाने के लिए पूर्व अनुमति ली जाए.
- हालांकि सरकार के इस फैसले को अदालत ने दो बार खारिज कर दिया. मई 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे समानता के अधिकार का उल्लंघन बताते हुए खारिज कर दिया था. फिलहाल अधिकारियों को बचाने के लिए ऐसा कोई दिशानिर्देश मौजूद नहीं है.
पूर्व कोयला सचिव एचसी गुप्ता ने हाल ही में मीडिया की सुर्खियां बटोरी हैं. गुप्ता फिलहाल कोयला ब्लॉक घोटाले में मुकदमे का सामना कर रहे हैं. गुप्ता के खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 के तहत मुकदमा चल रहा है.
गुप्ता ने हाल ही में सीबीआई अदालत को यह बताया कि वह अपने बचाव के लिए वकील नहीं कर सकते क्योंकि उनके पास पर्याप्त पैसा नहीं है. उन्होंने कहा कि वह अपने मामले की पैरवी खुद करेंगे.
निश्चित तौर पर यह कोयला ब्लॉक जैसे चर्चित घोटाले में चौंकाने वाली अपील है.
गुप्ता का ट्रैक रिकॉर्ड
गुप्ता अपनी ईमानदारी और साधारण जीवनशैली के लिए जाने जाते हैं. सेवा में उनका शानदार रिकॉर्ड रहा है. भारत सरकार में करीब 10 साल तक सचिव के तौर पर काम करने के बाद उन्होंने कोयला ब्लॉक आवंटन के मामले में सिफारिश की जिसके आधार पर सरकार ने कोयला ब्लॉक का आवंटन किया.
उनकी तरफ से कोई गलती नहीं हुई और न ही उन पर किसी को फायदे के बदले फायदा पहुंचाने (क्विड प्रो को) का आरोप लगा. इस बात को तय किए बगैर कि क्या सही था और क्या गलत, अगर उनकी तरफ से कोई फैसला बिना किसी गलत मंशा के लिया गया तो फिर उन्हें क्यों किसी मामले में परेशान किया जा रहा है?
जाे भी हो रहा है, उसमें कुछ भी ठीक नहीं हो रहा. और जो कुछ उनके साथ हो रहा है वैसा ही अन्य ईमानदार अधिकारियों के साथ भी हो सकता है.
कार्रवाई से हो सकती हैं परेशानी
क्या गुप्ता अति उत्साह में लिए गए फैसलों की वजह से सीबीआई के दायरे में है? अन्य अधिकारियों के बीच इस बात को लेकर बेहद नाराजगी है. पिछले कुछ समय से लगातार बड़े अधिकारियों को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 13(1) डी (3) के तहत आरोपित किया जा रहा है.
हो सकता है कि यह कुछ मामलों में सही हो. लेकिन जांच एजेंसी की जांच को अगर हम किसी संदर्भ में देखे तो हमें पता चलेगा कि जांच एजेंसी को कानून के मुताबिक काम करने का अधिकार होता है. जांच अधिकारी कानून के मुताबिक ही अपना काम करते हैं. दुर्भाग्यवश कानून ही ऐसी स्थिति के पैदा होने का मौका देता है.
अन्य लोग इस धारा में मौजूद खामियों का जिक्र कर चुके हैं. आर्थिक अपराध से जुड़े मामलों में ही इस धारा का इस्तेमाल किया जाता है.
कानून की यह धारा आपराधिक कृत्य से जुड़ी है. धारा के तहत पद पर रहते हुए बिना किसी सार्वजनिक हित के अगर कोई अधिकारी कोई फैसला लेता तो वह आपराधिक व्यवहार की श्रेणी में आता है.
इसके लिए जरूरी नहीं कि अधिकारी की कोई आपराधिक पृष्ठभूमि ही हो या फिर उसे संबंधित फैसले से कोई लाभ हुआ हो.
धारा की जटिलताएं
इस धारा की क्या जटिलताएं हैं और इसे किस तरह से इस्तेमाल किया जा सकता है? विशेषकर आर्थिक मामलों से जुड़े मंत्रालयों में बैठे अधिकारी कई ऐसे फैसले लेते हैं जिससे निजी क्षेत्र पर असर होता है. उन्हें सार्वजनिक हितों की खारित समय समय पर कई फैसले लेने पड़ते हैं.
ऐसे में अधिकारियों की तरफ से लिए गए कई फैसलों से जाहिर तौर पर किसी न किसी को फायदा होगा ही. कानून की भाषा में इसे फायदे के तौर पर दिखाया गया है. हालांकि फिर भी यह सवाल बना ही रहता है कि वह सिफारिशें सार्वजनिक हितों के मुताबिक की गई थी या उसके बिना.
किसी सरकारी अधिकारी का नाम अगर इस दायरे में आ जाता है तो उसे खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. क्योंकि उन्हें पता नहीं होता कि उनके किन फैसलों को जांच के दायरे में ले आया जाएगा.
अगर कोई अधिकारी फैसले लेता है तो निश्चित तौर पर वह कभी भी इस कानून के दायरे में आ सकता है. पीसी पारेख और श्यामल घोष का मामला इसी की कहानी है.
सरकार का बचाव
तो फिर इस प्रावधान का क्या मतलब है? इसका अपना इतिहास है. संक्षेप में कहा जाए तो जनहित याचिकाओं की वजह से सरकार के फैसले को संदेह की नजर से देखा जाता है.
पहले भी सरकार ने ईमानदार अधिकारियों को बचाने के लिए इन प्रावधानों में फेरबदल की सिफारिश की थी. सरकार ने यह सुनिश्चित करने की कोशिश की संयुक्त सचिव और उससे ऊपर के अधिकारियों को जांच के दायरे में लाने के लिए पूर्व अनुमति ली जाए.
हालांकि सरकार के इस फैसले को अदालत ने दो बार खारिज कर दिया. मई 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे समानता के अधिकार का उल्लंघन बताते हुए खारिज कर दिया था. फिलहाल अधिकारियों को बचाने के लिए ऐसा कोई दिशानिर्देश मौजूद नहीं है.
हालांकि जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से अनुमति लेने का प्रावधान बरकरार है. 2013 में एक कानून में बदलाव के लिए बिल पेश किया गया था लेकिन अभी तक इस दिशा में सहमति भी नहीं बन पाई है. फिलहाल यह बिल राज्यसभा की सेलेक्ट कमेटी के सामने लंबित है.
क्यों जरूरी है भारत के लिए बेहतर कानून
यह मामला केवल नौकरशाही से जुड़ा नहीं है. यह ऐसा मसला है जिसकी वृहद जटिलतांए हैं. सरकार का आर्थिक एजेंडा बेहद बड़ा है और उसकी योजना मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ाने की है. इसके लिए सरकार को नीति बनानी होगी और निजी क्षेत्र के साथ मिलकर काम करना होगा.
इन नीतियों के सफल होने के लिए हमें अधिकारियों के मन में बैठे डर को निकालना होगा ताकि वह बिना किसी भय और डर के फैसले ले सकें. हमें एचसी गुप्ता के बारे में सोचने की जरूरत है और ईमानदार अधिकारियों को संरक्षित करने की. ईमानदारर अधिकारियों को किसी भी सूरत में परेशान नहीं किया जाना चाहिए.
हमें बस ऐसे कानून की जरूरत है ताकि भविष्य में एचसी गुप्ता की तरह कोई और मामला सामने नहीं आए.
First published: 24 August 2016, 7:58 IST