जाट हिंसा का संदेश है, खट्टर से न हो पाएगा...

- हरियाणा में जाटों ने जिस तरह आरक्षण के लिए चार दिनों तक हिंसा की उसके बाद राज्य के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की क्षमता पर सवाल उठ रहे हैं.
- खट्टर सरकार पर निर्णय लेने में देरी और निर्णय के लिए आरएसएस के फैसले का मुंह देखने का आरोप है. उनके मंत्रिमंडल में भी एकजुटता की कमी दिखी.
करीब चार दिनों तक हरियाणा के कई इलाकों जाटों द्वारी की गई हिंसा के चपेट में रहे. हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर जाटों के उपद्रव को काबू में रखने में विफल रहे. उनकी छवि ऐसे मुख्यमंत्री की बनी जो मुश्किल हालात में फैसला करने के काबिल नहीं हैं.
इसलिए वो विपक्षी दलों और आम लोगों की आलोचना के केंद्र में हैं. खट्टर, जाटों की हिंसा के शिकार रोहतक के दौर पर गए तो आम लोगों ने उन्हें काल झंडे दिखाए और उनके खिलाफ नारे लगाए.
शायद इस छवि को तोड़ने के लिए ही सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा के पूर्व सहयोगी प्रोफेसर विरेंदर सिंह पर राजद्रोह का मामला दर्ज करने का आदेश दिया है. मीडिया में एक ऑडियो क्लिप आयी है जिसमें कथित तौर पर वो खाप नेता कप्तान मान को हिंसा भड़काने के लिए कह रहे हैं.
विरेंदर ने इन आरोपों को यह कहकर खारिज किया है कि कथित क्लिप बहुत पुरानी है और उसमें छेड़छाड़ की गई है. कांग्रेस ने खुद को इस मामले से किनारा कर लिया है. पार्टी ने कहा है कि ये विरेंदर सिंह का निजी मामला है और इसका संगठन से कोई लेना-देना नहीं है.
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विश्लेषकों के अनुसार खट्टर ने एक के बाद एक गलतियां कीं. जाटों की हिंसा को काबू करने की उनकी हर रणनीति फ्लॉप साबित हुई. जब तक केंद्र ने दखल नहीं दिया ये मामला उनसे नहीं सुलझा.
उपद्रव कर रहे जाटों के साथ बातचीत के लिए चौधरी बीरेंदर सिंह और संजीब बलियान ने मध्यस्थता की. जिसके बाद जमीनी स्थिति बेहतर हुई.
इससे ये संदेश गया कि खट्टर अपने घरेलू समस्या के लिए केंद्र का मुंह देख रहे थे. इसके बाद राज्य की राजनीति में चौधरी बीरेंदर सिंह का कद बढ़ गया है. प्रदर्शनकारी खट्टर के आरक्षण की मांग स्वीकार कर लेने के बाद भी नहीं रुके थे.
मनोहर लाल खट्टर के आश्वासन के बावजूद जाट केंद्र के मध्यस्थता के बाद ही शांत हुए
खट्टर जाटों को नौकरी और शिक्षा में इकोनॉमिकली बैकवर्ड कास्ट(ईबीसी) के तहत आरक्षण देने के लिए तैयार हो गए थे. उन्होंने सामान्य वर्ग के कोटे के अंदर जाट समेत चार जातियों के लिए 10 से 20 प्रतिशत आरक्षण देने की बात कही थी.
उन्होंने क्रीमी लेयर की आय की सीमा ढाई लाख सालाना से बढ़ाकर छह लाख करने की बात कही. उन्होंने राज्य के मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाने का आश्वासन दिया जो स्पेशल बैकवर्ड क्लासेज(एसबीसी) के लिए आरक्षण देने पर विचार करेगी और भविष्य में इसके लिए क्या कदम उठाए जाएं इसपर राय देगी. लेकिन जाट नहीं माने.
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राज्य में इस बात पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं कि आखिर जाट केंद्र द्वारा वेंकैया नायडु की अध्यक्षता में उनकी मांगों पर विचार करने के लिए एक कमेटी बनाने के बाद शांत क्यों होने लगे.
ये कमेटी इस बात पर विचार करेगी कि जाटों को आरक्षण का लाभ कैसे मिल सकता है. खट्टर ने भी विधान सभा के अगले सत्र में इस मुद्दे से जुड़ा विधेयक पेश करने की बात कही. उन्हें केंद्र ने भी यही आश्वासन दिया.
प्रदर्शन की शुरुआत से ही जाटों ने खट्टर को नेता मानने से इनकार कर दिया था. कप्तान के तौर पर वो अपनी टीम को एकजुट रखने में नाकामयाब रहे. वो अपने कैबिनेट के जाट मंत्री कैप्टन अभिमन्यु और कुरुक्षेत्र के सांसद राज कुमार सैनी के बीच वाक्युद्ध को भी नहीं रोक सके. जिससे प्रदर्शनकारियों में असंतोष बढ़ा था.
जब तक सरकार सैनी के बयान का खंडन करती नुकसान हो चुका था. ऐसी भी खबरें आई हैं कि सैनी निजी तौर पर अभी अपने बयान पर कायम हैं. एक क्रोधित जाट ने कैच को बताया, "प्रदर्शन जब उफान पर था तभी सैनी ने बयान न दिया होता तो जाट इस हद तक नहीं जाता."
खट्टर मुआवजे के मसले पर भी अपनी कैबिनेट के सभी साथियों को संतुष्ट नहीं कर सके. हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज ने खट्टर के मृतकों को 10 लाख रुपये और परिवार के एक सदस्य को नौकरी की घोषणा पर अंसतोष जताया.
विज का मानना था कि कानून तोड़ने वाले प्रदर्शनकारियों को मुआवजा नहीं देना चाहिए. हरियाणा के पर्लियामेंट्री अफेयर्स मंत्री राम बिलास शर्मा ने भी इशारा किया सरकार के बीच इस मसले पर वैचारिक मतभेद था. सरकार के करीबी सूत्रों के अनुसार कुछ मंत्रियों को घोषणा से पहले इस फैसले के बारे में जानकारी नहीं थी.
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खबरों के अनुसार राज्य के परिवहन मंत्री करन देव कम्बोज ने भी इस मसले पर सरकार के रवैये पर सवाल उठाया. खबरों के अनुसार उन्होंने कहा कि अगर सामूहिक रूप से निर्णय लिए जाते तो ये स्थिति नहीं आती. इस मसले को हल्के रूप से लेने से ही ये हालात बने.
राज्य सरकार द्वारा तुरंत ही सेना बुला लेने के फैसले पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं. आम तौर पर सेना तब बुलायी जाती है जब हिंसा और उपद्रव को काबू करने के बाकी सारे उपाय विफल हो जाएं. सेना जमीनी तौर पर बहुत कारगर भी नहीं रही क्योंकि उसका मुख्य उपयोग फ्लैग मार्च के लिए किया गया.
मनोहर लाल खट्टर के मंत्रिमंडल में मतभेद था जिसकी वजह से भी मामले से निपटने में मुश्किल हुई
राज्य की खुफिया संस्थाएं और पुलिस भी हालात को भांपने और निपटने में विफल रहीं. खट्टर को जमीनी सच्चाई का पता नहीं चला इसकी एक बड़ी वजह पुलिस द्वारा स्थिति का सही आकलन न कर पाना भी रहा.
कुछ रिपोर्टों के अनुसार पुलिस ने शुरुआती कार्रवाई में सुस्ती दिखायी. पुलिस के संयम बरतने की रणनीति विफल रही. जब केंद्र ने राज्य से इसका कारण पूछा तो उसके पास कोई जवाब नहीं था.
इस बात पर भी सवाल उठाया जा रहा है कि खट्टर ने जाटों के प्रदर्शन शरु होते ही अपने जाट मंत्री कैप्टन अभिमन्यु और ओम प्रकाश धनकर को उनसे बातचीत के लिए नहीं भेजा.
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इस बार सरकार की 'वेट एंड वाच' की नीति का फायदा प्रदर्शनकारी जाटों को मिला और हिंसा जंगल की तरह आग फैली. उसके बाद भी जाट समुदाय के नेताओं से मामले को शांत कराने की अपील करने में भी देर की.
राजनीतिक टिप्पणीकार गुरमीत सिंह कहते हैं, "खट्टर निस्संदेह मुख्यमंत्री के रूप में विफल रहे. सरकार एकजुट होकर संकट से नहीं निपट सके. उनके पास कोई साफ रणनीति नहीं थी."
सिंह कहते हैं कि राज्य में आरक्षण के नाम पर इससे पहले कभी इस पैमाने पर हिंसा नहीं हुुई थी. वो कहते हैं, "हालात बेकाबू होने देने के लिए आखिरकार राज्य के मुख्यमंत्री ही जिम्मेदार हैं."
खट्टर जब से सत्ता में आए हैं वो निर्णय लेने के मामले में कमजोर लगते रहे हैं. कोई भी फैसला लेने से पहले वो बहुत हिचकते हैं. उनके आलोचक कहते हैं कि सरकार हर फैसले से पहले आरएसएस की तरफ देखती है. दूसरी सरकार के इस रवैये के कारण राज्य के नौकरशाहों में इस बात को लेकर भी अंसतोष बढ़ रहा है.
First published: 25 February 2016, 9:08 IST