आहत होना एक उद्योग बन चुका हैः अमर्त्य सेन

नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री और भारत रत्न अमर्त्य सेन ने 12 फरवरी को दिल्ली में राजेंद्र माथुर मेमोरियल लेक्चर दिया.
सेन ने अपने लेक्चर में कहा कि आजकल भारत में धारा 377(अप्राकृतिक यौन संबंध) पर बहुत चर्चा हो रही है. सुप्रीम कोर्ट ने इसे पांच जजों वाली संविधान पीठ को भेजा है. ये कानून ब्रितानी शासन के दौर का कानून है. खुद ब्रिटेन में ऐसा कानून करीब चार दशक पहले खत्म किया जा चुका है.
सेना ने कहा कि हालांकि एक अन्य औपनिवेशिक कानून है जिसपर बात नहीं होती. वो कानून है भारतीय दंड संहिता की धारा 295(ए) जिसकी आजाद भारत में जरूरत नहीं है.
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इसके कानून के तहत "किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने की कोशिश करने" पर कार्रवाई का प्रावधान है.
कॉमेडियन कीकू शारदा को इसी कानून के तहत गिरफ्तार किया गया था. उनपर डेरासच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत रामरहीम सिंह का मजाक उड़ाने का आरोप था. इसी कानून के तहत एआईबी पर मामला दर्ज हुआ था. उनपर मिशनरी सेक्स पर चुटकुला सुनाने का आरोप था.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी की भी धार्मिक भावनाओं से ऊपर होनी चाहिएः अमर्त्य सेन
मोटे तौर पर ये ऐसा कानून है जिसकी व्याख्या अक्सर सुविधानुसार की जाती है. कोई भी व्यक्ति कभी भी दावा कर सकता है कि किसी ने उसकी धार्मिक भावनाएं आहत की हैं और वो उसे जेल भिजवा सकता है.
कीकू शारदा के मामले में तो 'धार्मिक भावनाओं' का दावा भी सवालों के घेरे में था क्योंकि डेरा सच्चा को कानूनी तौर पर धर्म का दर्जा नहीं प्राप्त है. अधिक से अधिक इसे एक समुदाय कहा जा सकता है जिसके कट्टर अनुयायी हैं.
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सेन ने कहा कि ब्रिटेन ने ये कानून इसलिए बनाया क्योंकि उन्हें नहीं लगता था कि भारतीय धार्मिक मुद्दों पर आलोचना को नहीं सह सकते. मैकाले को लगता था कि भारतीयों में तर्कशक्ति कम है. चूंकि ब्रिटिश शासन नहीं चाहता था कि उसे धार्मिक झगड़ों का सामना करना पड़े इसलिए उसने 295(ए) कानून बनाया.
भारतीय संविधान धार्मिक भावनाओं का संरक्षण नहीं करता. सेन ने कहा, "धार्मिक भावनाओं को इस स्तर पर रखना औपनिवेशक दौर का अवशेष है. ब्रिटिश शासकों के लिए ये सुविधाजनक था. अब इसे बनाए रखने का क्या तुक है?"
भारत को व्यक्ति की स्वंत्रतता पर रोक लगाने वाले ब्रितानी दौर के कानूनों से छुटकारा पा लेना चाहिए
सेन ने कहा, "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी की भी धार्मिक भावनाओं से ऊपर होनी चाहिए. संविधान किसी के धार्मिक भावनाओं का संरक्षण नहीं करता."
उन्होंने आगे कहा नतीजतन, "कोई अपने घर में कुछ खा रहा है और आप अपने घर में बैठकर उससे आहत हो जा रहे हैं."
सेन ने कहा कि भारत में एक छोटा सा लेकिन बहुत संगठित गिरोह ऐसी भावनाओं से भरा हुआ है जो सूरज की रोशनी से भी आहत हो जाती हैं. उन्होंने कहा, "आहत होना एक उद्योग बन चुका है." जो पूरे देश पर हावी हो गया है.
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सेन ने कहा कि 'ये मौजूदा सरकार के समय से नहीं शुरू हुआ है लेकिन इस सरकार में इसमें काफी तेजी आई है.'
इसी कानून के तहत सलमान रश्दी की किताब 'सैटेनिक वर्सेज' पर दुनिया में सबसे पहले प्रतिबंध भारत में लगा.
सेन ने अपने भाषण के आखिर में कहा कि असहिष्णुता के खिलाफ संघर्ष शुरू करने के लिए कुछ कदम तत्काल उठाने की जरूरत हैः
- हमें इसके लिए संविधान को दोष देने से आगे बढ़ना चाहिए. ये कानून ब्रितानी दौर के इंडियन पीनल कोड का हिस्सा था.
- हमें ब्रितानी शासन के दौर के व्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाने वाले तमाम कानूनों से छुटकारा पा लेना चाहिए.
- हमें असहिष्णुता को सहन नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे उत्पीड़न की संस्कृति को बढ़ावा मिलता है.
- सुप्रीम कोर्ट को देखना होगा कि क्या भारत औपनिवेशिक दौर के कानूनों से संचालित हो रहा है, वही कानून जिनके खिलाफ लड़कर देश ने आजादी हासिल की थी.
- अदालतों को ऐसे मामलों में किसी भी शिकायत पर सुनवाई करते समय उसे संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों के बरक्स रख कर देखना चाहिए.
अमर्त्य सेन ने कहा कि अधिक सतर्कता ही स्वतंत्रता की कीमत है.