ओवैसी का बयान सांप्रदायिकता या सच्चाई? 'नोटबंदी ने मुसलमानों की मुश्किलें ख़ासतौर से बढ़ाई हैं'

- असदुद्दीन ओवैसी की बात एक लिहाज से एकदम सही है. नोटबंदी ने औरों से ज्यादा मुसलमानों की दुश्वारियां बढ़ाई हैं.
- मुसलमान इलाकों में बैंकिंग सेवाएं कम हैं, इसलिए नोटबंदी ने उन्हें बेतहाशा प्रभावित किया है.
अखिल भारतीय मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन प्रमुख और हैदराबाद से सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने अपने बयान से नोटबंदी से उपजे विवाद को और तीखा कर दिया. उनका कहना है कि नोटबंदी ने मुसलमान बहुल इलाकों की दुश्वारियां खासतौर से बढ़ाई हैं.
सोमवार को महाराष्ट्र में लातूर के पास उदगीर में एक रैली में उन्होंने कहा, ‘ज्यादातर मुसलमान बहुल इलाकों में जितने बैंक होने चाहिए, नहीं हैं. उनके ऋण वितरण का अनुपात भी अन्य क्षेत्रों से कम है. पर्याप्त संख्या में एटीएम नहीं हैं.’ उन्होंने आगे कहा, ‘इन इलाकों में बैंक खुले होते हैं, तो उसे रेड जोन घोषित कर दिया जाता है.’
भाजपा और कांग्रेस दोनों ने उनके बयान की आलोचना की है. भ्रष्टाचार के आरोप में फंसने से पहले राज्य गृहमंत्री किरण रिजीजू ने इस मुद्दे पर ट्वीट किया था.
कांग्रेस नेता और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण ने कहा, ‘हमें ओवैसी की बात पर यकीन नहीं है. अगर सच में ऐसा है, तो उन्हें सबूत देना चाहिए.’ कई न्यूज़ एंकरों ने भी उनकी तीखी आलोचना की कि उन्होंने अपने बयान से लोगों की तकलीफों का ‘सांप्रदायिकरण’ कर दिया है. सवाल यह है कि क्या ओवैसी के पास अपनी बात को साबित करने का ठोस आधार है?
मुसलमान और बैंकिंग सेक्टर
ओवैसी का बयान तथ्यों से वाकई पुष्ट होता है. और इलाकों की तुलना में मुसलमान बहुल इलाकों में बैंकिंग सेवाएं कम हैं. इस संदर्भ में सच्चर समिति की रिपोर्ट पर ग़ौर करना चाहिए.
44 अल्पसंख्यक बहुल जिलों (55 बैंक शाखाएं) के लिए पीएम के 15 सूत्री कार्यक्रम का गौर से अध्ययन करने के बाद आरबीआई ने कहा कि प्रमुख बैंकों में अल्पसंख्यक समुदायों को ऋण कम दिया जाता है.
ज्यादातर जिलों में अल्पसंख्यक समुदाय की ऋण संबंधी जरूरतों को पूरा करने का दायित्व किसी भी अधिकारी को नहीं दिया गया है.
करीब आधे ज़िलों में ज़िला सलाहकार समिति की बैठकें नहीं रखी गईं, और बैंक स्टाफ अल्पसंख्यक समुदाय की खास ज़रूरतों को पूरा करने के लिए संवेदनशील नहीं थे.
अखिल भारतीय स्तर पर मुसलमानों के खाते संतोषजनक हैं, पर 44 अल्पसंख्यक प्रभाव वाले जिलों में (मुसलमानों की जनसंख्या को देखते हुए) 12 प्रतिशत कम है. 11 ज़िलों में मुसलमानों की सबसे ज्यादा आबादी है. कुल मिलाकर 51.4 प्रतिशत, पर कुल बैंक खातों में उनकी हिस्सेदारी महज 31.7 प्रतिशत है. इन जिलों में मुसलमानों की कुल बकाया राशि में हिस्सेदारी 11.6 प्रतिशत है, जो निराशाजनक है. यह बेहद कम है.
अध्ययन से सामने आया कि बैंक ऋण तक मुसलमानों की पहुंच कम और अपर्याप्त है. पब्लिक और प्राइवेट बैंकों में अन्य समुदायों की तुलना में इनके लिए ऋण का औसत आकार भी कम है. सिडबी और नाबार्ड जैसी वित्तीय संस्थाओं में भी आर्थिक सहयोग की स्थिति एक-सी है.
2001 की जनगणना के हिसाब से जिन गांवों में मुसलमानों की आबादी ज़्यादा है, वहां बैंक सुविधाओं का उपयोग करने वालों का बहुत कम प्रतिशत है. इसकी एक वजह इन गांवों में बैंक सुविधाएं नहीं होना है. यानी कि जिन इलाकों में मुसलमानों की आबादी ज्यादा है, वहां समुदाय बैंक सुविधाओं का पूरा फायदा नहीं ले पा रहा है.
इन तथ्यों को देखते हुए यकीन करना मुश्किल नहीं होगा कि मुसलमान बहुल इलाकों में बैंक शाखाएं और एटीम कम हैं और नोटबंदी के बाद वहां और इलाकों की तरह नियमित रूप से कैश नहीं पहुंच रहा है.
पिछड़ेपन का सूचक
मुसलमान बहुल इलाकों में बैंक की सेवाओं तक पूरी पहुंच नहीं होने की स्थिति पिछड़ेपन की वजह से है. दूसरे इलाकों से तुलना करें, तो ये इलाके सरकारी सेवाओं की कमी के कारण परेशान हैं.
सच्चर समिति की रिपोर्ट के मुताबिक मुसलमान बहुल इलाकों वाले छोटे गांवों में से हर तीसरे गांव में शिक्षण संस्थाएं नहीं हैं. मुसलमानों की अच्छी-खासी आबादी वाले 40 फीसदी बड़े गांवों में चिकित्सा सुविधाओं की कमी है.
कम सुविधा वाले इलाकों में मुसलमानों का जमाव है. इसकी वजह से शिक्षा, चिकित्सा सुविधा और परिवहन आदि जैसी अहम सेवाओं तक उनकी पहुंच प्रभावित होती है.
जहां तक जीवन स्तर का सवाल है, मुसलमानों के घरों की स्थिति एससी, एसटी और ओबीसी जैसी ही हैं. उनके पास पक्के मकान नहीं हैं. शौचालय की सुविधाएं उनसे थोड़ी बेहतर हैं.
पानी, बिजली और गैस आदि की सुविधाएं उनके पास कम हैं. इन सबके मद्देनजर, उनकी स्थिति ‘हिंदू जनरल’ से ज्यादा खराब है.
6 साल तक के मुसलमान बच्चे को समेकित बाल विकास सेवाओं में बहुत कम कवर किया गया है, एससी, एसटी के इस उम्र के बच्चों से भी कम.
सुनियोजित भेदभाव
सुरक्षा की चिंता और भेदभाव के कारण शहरी इलाकों में मुसलमान घनी आबादी वाली बस्तियों में रहते हैं, जहां नागरिक सुविधाएं अक्सर कम होती हैं. कुछ लोग कहते हैं कि अगर किसी सरकारी एजेंसी का यहां सही प्रतिनिधित्व है, तो वह पुलिस है, इससे लगता है कि सरकार की केवल यही प्राथमिकता है.
नोटबंदी के बाद इन इलाकों में कैश की कमी और भी ज्यादा है, इसके दो कारण हैं. एक तो यहां बैंकिंग सेवाएं कम हैं, और दूसरा, घनी आबादी है.
कैच ने दिल्ली में कई मुसलमान बहुल इलाकों का दौरा किया और पाया कि वहां बहुत कम एटीम चल रहे थे. मसलन, पिछले शुक्रवार को जब हम गए तो पुरानी दिल्ली के माटिया महल इलाके में कोई भी एटीएम नहीं चल रहा था. जबकि यह पुराना इलाका है और यहां संपन्न मुसलमान काफी हैं.
यहां के लोग नई सडक़ पर कोटक महिंद्रा का एटीम काम में ले रहे थे, जहां हिंदू बनिया कारोबारी ज्यादा रहते हैं. मुसलमानों के एक और इलाके बल्लीमारान के लोगों ने भी कहा कि उन्हें भी नई सडक़ का एटीएम इस्तेमाल करना पड़ रहा है क्योंकि उनके इलाके में कोई एटीम काम नहीं कर रहा.
दरियागंज और तुर्कमान गेट के कई लोगों ने कहा कि उन्हें कैश निकालने के लिए रात में कनॉटप्लेस तक जाना पड़ता है. उत्तर पूर्वी दिल्ली के सीलमपुर और जाफराबाद में भी हालात इससे अलग नहीं थे. जामिया नगर में दक्षिणी दिल्ली के न्यू फ्रैंड्स कॉलोनी से स्थिति बिलकुल उलट थी. वहां बहुत कम एटीम चल रहे थे.
दूसरे शहरों के हालात भी कोई बेहतर नहीं हैं और ओवैसी का बयान आंशिक रूप से हैदराबाद में कैश की कमी को देखते हुए है.
ओवैसी की बात में दम है, जब वे यह कहते हैं कि मुसलमान बहुल इलाकों में बैंक उतने नहीं हैं, जितने होने चाहिए. यह सब भेदभाव की वजह से है, सुनियोजित है. केवल नोटबंदी के बाद ऐसा नहीं हुआ है.
मुसलमान ही ज्यादा क्यों परेशान?
ज्यादातर मुसलमान अनौपचारिक और असंगठित सेक्टर में काम करते हैं, मसलन बुनकर, हस्तशिल्पी आदि. ये ज्यादातर कैश पर चलते हैं. सभी जानते हैं कि नोटबंदी ने पीएम नरेंद्र मोदी के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में रेशम बुनकरों को बर्बाद किया.
सच्चर समिति की रिपोर्ट मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का विस्तार से खाका खींचती है. समुदाय की मुश्किलें खासतौर से बढ़ जाती हैं, जब नोटबंदी जैसी योजनाएं लागू होती हैं.
रिपोर्ट के कुछ और तथ्य
काफी संख्या में मुसलमान छोटे मालिकाना उद्यमों में काम करते हैं और औपचारिक सेक्टरों में उनका रोजगार राष्ट्रीय औसत से बहुत कम है. अन्य सामाजिक-धार्मिक समुदायों की तुलना में मुसलमानों का प्रतिशत स्वयं के स्वामित्व वाले मालिकाना उद्यमों में ज्यादा है.
ऐसा खासतौर से शहरी क्षेत्रों में है. औरतों के स्वामित्व वाले मालिकाना उद्यमों में मुसलमान औरतों की भागीदारी ज्यादा है. ये उद्यम मुख्य रूप से घरेलू उप-बंधित काम हैं, जिनके लिए बहुत कम पैसा दिया जाता है, ज्यादातर कैश में.
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम या सरकार में मुसलमान वर्करों की भागीदारी सभी सामाजिक-धार्मिक समुदायों से कम है. मसलन ऐसे कामों में मुसलमान पुरुष 6 प्रतिशत हैं, जबकि कुल पुरुष वर्कर 10 प्रतिशत हैं और सभी हिंदु वर्कर्स (पुरुष) 13 प्रतिशत हैं.
भारतीय मुसलमान के एक बड़े वर्ग की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को देखते हुए आपको शायद ही इस पर हैरानी होगी कि नोटबंदी के बाद अन्य समुदाय से ज्यादा मुसलमान प्रभावित हुए हैं. ओवैसी का बयान कहीं से भी सांप्रदायिक नहीं है. इसकी उपेक्षा ही करनी है, तो है.
First published: 15 December 2016, 7:48 IST