सूखाग्रस्त इलाकों में मनरेगा भी नहीं कर रहा मलहम का काम

- बीते सितंबर में मराठवाड़ा गांव में एक महिला किसान ने आत्महत्या कर ली. \r\nयदि उस गांव में मनरेगा के तहत रोजगार मिल जाता तो उसकी जिंदगी बचाई जा \r\nसकती थी
- योजना के आंकड़े बताते हैं कि नाममात्र के ऐसे घर हैं, जो इस योजना के तहत 100 दिन का रोजगार पाने में कामयाब हो पाए
महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून यानी मनरेगा हर उस ग्रामीण को सालभर में 100 दिन का रोजगार देने का वादा करता है जिन्हें इसकी जरूरत है.
देश के उन सूखाग्रस्त इलाकों में, जहां रोजगार का अन्य कोई अवसर नहीं होता, ऐसी योजना का मतलब जीवन और मरण के बीच का अंतर होता है. बीते सितंबर में मराठवाड़ा गांव में एक महिला किसान ने आत्महत्या कर ली. यदि उस गांव में मनरेगा के तहत रोजगार मिल जाता तो उसकी जिंदगी बचाई जा सकती थी.
सरकारी रिपोर्टों में दावा किया जा रहा है कि मनरेगा के तहत इस वित्त वर्ष में अधिक लोगों को रोजगार दिया गया है, लेकिन क्या यह योजना अपने मकसद में कामयाब हो पा रही है ? गौर से देखने पर पता चलता है कि सरकारी तंत्र सूखा झेल रहे लोगों की सहायता करने में बुरी तरह असफल रहा है.
योजना के आंकड़े बताते हैं कि नाममात्र के ऐसे घर हैं, जो इस योजना के तहत 100 दिन का रोजगार पाने में कामयाब हो पाए. और इससे अधिक की उम्मीद करना भी बेमानी नजर आता है.
गौर करने लायक बात है कि वित्त वर्ष खत्म होने में मात्र 70 दिन बचे हैं और योजना के तहत पंजीकृत लोगों में से लगभग आधे मात्र 30 दिन का काम पूरा कर पाए हैं. ऐसे में बाकी लोग 100 दिन का रोजगार पूरा कर ही नहीं पाएंगे.
सरकारी वेबसाइट पर मनरेगा के एक दिन पहले तक के आंकड़े अद्यतन रहते हैं. सिर्फ तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के आंकड़े एक दिन देरी से वेबसाइट पर आ पाते हैं. ये आंकड़े बयां करने के लिए काफी हैं कि योजना के तहत जिन 50 अतिरिक्त दिन का रोजगार देने का दावा किया जाता है, वह मात्र दिखावा ही है, वे किसी को मिलते ही नहीं.
योजना के तहत जिन 50 अतिरिक्त दिन का रोजगार देने का दावा किया जाता है, वह मात्र दिखावा ही है, वे किसी को मिलते ही नहीं
योजना के तहत पंजीकृत ग्रामीणों में से तीन चौथाई को तो अब तक 80 दिन का रोजगार भी नहीं मिल पाया है. इसका मतलब साफ है- वे इस वित्त वर्ष के अंत (31 मार्च) तक किसी भी हाल में 150 दिन का रोजगार पाने की स्थिति में नहीं हैं.
मनरेगा तीन चौथाई ग्रामीण घरों का वित्तीय भार भी कम करने में असफल ही नजर आती है, क्योंकि इनको अब तक मानदेय का भुगतान हुआ ही नहीं है, जबकि काम पूरा होने के 15 दिन में मजदूरी के भुगतान का दावा किया जाता है.
अधूरा काम
सूखाग्रस्त राज्यों में मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और ओडिशा शामिल हैं.
आइए बुंदेलखंड क्षेत्र पर एक नजर डालते हैं जो उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के 7-7 जिलों
में फैला हुआ है. यह देश में सूख से बुरी तरह प्रभावित चुनिंदा क्षेत्रों में से एक है और यहां सूखे के कारण लगातार तीन बार फसल तबाह हो चुकी है. लेकिन लगता है यहां मनरेगा के मामले में भी सूखा ही पड़ा हुआ है.
यहां के मात्र पांच पांच फीसदी पंजीकृत लोगों को मनरेगा के तहत 100 दिन का रोजगार मिल पाया है.100 दिन से अधिक का रोजगार पाने वाले भाग्यशालियों की संख्या मात्र चार फीसदी रही.
100 दिन से अधिक का रोजगार पाने वाले भाग्यशालियों की संख्या मात्र चार फीसदी रही
और अधिकांश लोगों के 100 या 150 दिनों का रोजगार पाने की संभावना लगभग न के बराबर है, क्योंकि
52 फीसदी को तो अब तक 30 दिन का रोजगार ही मिल पाया है. पंजीकृत लोगों में से 87% ऐसे हैं जो अब तक 80 दिन का रोजगार पाने में भी सफल नहीं हो पाए हैं.
चूंकि वित्त वर्ष पूरा होने में मात्र 70 दिन शेष हैं, ऐसे में इन लोगों को सूखे के कारण मिलने वाला 50 दिन का अतिरिक्त रोजगार मिल पाना भी असंभव है. गंभीर बात यह है कि सूखे से बुरी तरह प्रभावित इस क्षेत्र में मनरेगा के तहत रोजगार देने की जरूरत कुछ महीने पहले ही महसूस की गई.
कैच न्यूज से बात करते हुए पिछले सप्ताह योगेंद्र यादव ने कहा था, "बुंदेलखंड में जुलाई के अंत या अगस्त के शुरू में मनरेगा के तहत रोजगार देने की शुरुआत की गई, जबकि यह पहली फसल तबाह होने के कारण अप्रैल में ही शुरू हो जाना चाहिए था.”
उन्होंने कहा, "7-8 महीनों तक सरकार ने कुछ नहीं किया. उत्तर प्रदेश में भी यह चुनिंदा जगहों पर शुरू हुई और वह भी भेदभाव के साथ."इस सबके बावजूद मनरेगा के तहत उत्तर प्रदेश का बजट पिछले वर्षों की तुलना में वित्त वर्ष 2015-16 में 20% कम था.
इसी कारण रोजगार कम देने के बावजूद राज्य का मनरेगा का 70% बजट खर्च हो चुका है.सूखा प्रभावित अन्य राज्यों की स्थिति भी इससे बदतर नहीं तो इतनी बुरी तो है ही.
महाराष्ट्र का हाल
मात्र 12 फीसदी पंजीकृत लोग 100 दिन का रोजगार पूरा कर पाए हैं. औसतन हर पंजीकृत मजदूर को
49 दिन का रोजगार उपलब्ध कराया गया. इनमें से सिर्फ एक तिहाई को काम पूरा होने के 15 दिन के भीतर भुगतान हो पाया.
अन्य बचे लोगों में 11 फीसदी को तो 60 दिन से भी लंबे समय तक मजदूरी के लिए इंतजार करना पड़ा. यहां मनरेगा के मात्र 12 फीसदी काम पूरे हो पाए, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह औसत 72 प्रतिशत का है.
इसी संदर्भ में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने दिसंबर में राज्य सरकार को पत्र लिखा था और यहां काम पूरे होने की दर को "ध्यान देने का मामला" बताया था. साथ ही योजना के काम अभियान के रूप में पूरे करने का आग्रह किया था.
ग्रामीण विकास मंत्री पंकजा मुंडे के खुद के लोकसभा क्षेत्र में (महाराष्ट्र की पार्ली सीट) मात्र नौ प्रतिशत मजदूरों को तय समय यानी काम पूरा होने के 15 दिन के भीतर भुगतान हो पाया, जबकि यह क्षेत्र भी सूखा-ग्रस्त मराठवाड़ा में आता है.
ओडिशा की स्थिति भी महाराष्ट्र जैसी बदतर
31 दिसंबर तक मात्र सात प्रतिशत काम पूरे हो पाए हैं. दो तिहाई मजदूरों को काम पूरा होने के 15 दिन के भीतर भुगतान नहीं किया गया.
स्वयं मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के क्षेत्र में तीन चौथाई भुगतान तय समय के बाद किए गए.
स्वयं मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के क्षेत्र में तीन चौथाई भुगतान तय समय के बाद किए गए
मनरेगा से जुड़े हजारों परिवारों में से मात्र चार प्रतिशत ऐसे हैं, जिनको 100 दिन काम मिल पाया. औसत निकाला जाए तो हर परिवार को केवल 34 दिन का काम मिल पाया.
तेलंगाना में सिर्फ छह प्रतिशत परिवार 100 दिन का काम पाने में सफल हो पाए
औसतन हर मजदूर परिवार को 40 दिन का काम मिला, जबकि सिर्फ आधे मजदूरों को 15 दिन में भुगतान हो पाया.
वहां के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव के विधानसभा क्षेत्र गजवेल में आधे से अधिक मजदूरों को भुगतान 15 दिन के बाद किया गया.
आंध्र प्रदेश में मात्र सात फीसदी मजदूर परिवारों को 100 दिन का काम मिल पाया
हालांकि भुगतान के मामले में आंध्र का प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा और केवल 22 प्रतिशत भुगतान देरी से हुआ (जबकि राष्ट्रीय स्तर पर औसतन 57 प्रतिशत भुगतान में देरी हो रही है), लेकिन मात्र सात प्रतिशत काम ही पूरे हो पाए हैं.
मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू के विधानसभा क्षेत्र कुप्पम का प्रदर्शन पूरे प्रदेश से बेहतर है. यहां 88 प्रतिशत मजदूरों को समय से भुगतान कर दिया गया, लेकिन मनरेगा में पंजीकृत हजारों मजदूरों में से आधे ही 100 दिन का काम पा सके.
मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू के विधानसभा क्षेत्र कुप्पम का प्रदर्शन पूरे प्रदेश से बेहतर है
मनरेगा को लागू करवाने के लिए वृहद स्तर पर अभियान चलाने वाले जीन द्रेज़ कहते हैं कि भुगतान में देरी मजदूरों को इस योजना के तहत काम मांगने से हतोत्साहित कर रही है.
वे कहते हैं, "उनमें से अधिकांश काम पूरा होने के बाद भुगतान के लिए हफ्तों तक इंतजार नहीं कर सकते, विशेषकर सूखाग्रस्त इलाकों में यह पूरी तरह लागू होता है.
"सूखे की स्थिति में यह सबसे महत्वपूर्ण है कि मांग के अनुसार काम उपलब्ध कराया जाए. मनरेगा के जरिए ऐसा करने हेतु कुछ विशेष प्रावधान करने होंगे.
उदाहरण के तौर पर, ऐसे क्षेत्रों में मजदूरों के पंजीकरण के कैंप लगाएं जाएं या हर गांव में हर समय मनरेगा का कम से कम एक काम जरूर उपलब्ध रहे." गंभीर मामला यह है कि अधिकतर राज्यों का पैसा खत्म हो चुका है.
मजदूर किसान शक्ति संगठन के निखिल डे कहते हैं कि उत्तर प्रदेश और तेलंगाना मनरेगा के तहत प्रस्तावित बजट से अधिक खर्च कर चुके हैं, वहीं अन्य राज्य भी इसी हालत में पहुंचने वाले हैं. जरूरत इस बात की है कि केंद्र सरकार तुरंत और फंड जारी करे, क्योंकि वित्त वर्ष पूरा होने में अभी दो महीने बचे हुए हैं.
डे कहते हैं, "केंद्रीय वित्त मंत्रालय को यह स्पष्ट करने की जरूरत है कि वह कितना पैसा देगा और कब देगा. और उसे यह सब जल्द नहीं, बल्कि अभी करना चाहिए."
First published: 25 January 2016, 8:46 IST