क्या है बलोचिस्तान और क्या है उसके प्रति पाकिस्तान का रवैया?

- नस्लीय विविधता और बहुलता अभी भी पाकिस्तान की राजनीति की सबसे बड़ी कमजोरी है. नस्लीय विविधता को अपनाने की बजाए पाकिस्तान की रणनीति उसे कुचलने की रही है.
- बलोच मुद्दे पर पाकिस्तान का नजरिया तंग रहा है. पूर्वी बंगाल में चल रहे विद्रोह को भी पाकिस्तान ने इसी तरीके से दबाने की कोशिश की थी.
- पाकिस्तान सरकार सैन्य दमन और धार्मिक चरमपंथियों का हथियार के तौर पर इस्तेमाल की दोतरफा नीति की मदद से बलोच राष्ट्रवादियों का दमन करने की कोशिश कर रही है.
- बलोच राष्ट्रवादियों के खिलाफ चरमपंथी संगठनों को आगे बढ़ाकर पाकिस्तान वैश्विक मंच पर धार्मिक आतंकवाद का खतरा जाहिर करता है.
नस्लीय विविधता और बहुलता अभी भी पाकिस्तान की राजनीति की सबसे बड़ी कमजोरी है. नस्लीय विविधता को बढ़ावा देने की बजाए पाकिस्तान की रणनीति उसे कुचलने की रही है.
बलोचिस्तान में चल रहे अलगाववादी आंदोलन से निपटने की पाकिस्तानी रणनीति यह साफ कर देती है कि वह बांग्लादेश के टूटकर अलग होने की ऐतिहासिक घटना से कोई सबक नहीं ले पाया है. बलोच मुद्दे पर पाकिस्तान का नजरिया बांग्लादेश की तरह ही तंग रहा है. पूर्वी बंगाल में चल रहे विद्रोह को भी पाकिस्तान ने इसी नजरिए से दबाने की कोशिश की थी.
पाकिस्तान की सियासत में पंजाब का वर्चस्व रहा है और इसकी वजह से 1971 में बांग्लादेश पाकिस्तान से टूटकर अलग हुआ. बलोच राष्ट्रवादियों की शिकायतें और उनके दमन का तरीका पूर्वी पाकिस्तान की पुनरावृत्ति है.
पाकिस्तान सरकार की नस्लीय अलगाववाद की नीति किस कदर बलोच पहचान को मजबूत कर रही है, इसका अंदाजा दिल्ली पहुंचे 25 वर्षीय बलोच शरणार्थी मजदक दिलशाद बलोच के बयान से लगाया जा सकता है.
मजदक के पास कनाडा का पासपोर्ट था लेकिन उसमें उनके जन्मस्थल के तौर पर क्वेटा का जिक्र था. इस वजह से वह अधिकारियों के संदेह के घेरे में आ गए.
मजदक ने कहा, 'मुझे आव्रजन अधिकारियों को यह बताते हुए तकलीफ हो रही थी कि मैं पाकिस्तानी नहीं हूं. आप मुझे कुत्ता कह लीजिए, लेकिन पाकिस्तानी मत बुलाइए. मैं एक बलोच हूं.'मजदक का यह बयान दिनों-दिन तेज हो रही बलोच अस्मिता की लड़ाई की एक तस्वीर हमारे सामने रखता है. 1947 में भारत-पाकिस्तान की आजादी के बाद से बलोचिस्तान का इतिहास शोषण और उत्पीड़न से भरा रहा है जिसके चलते बलोच राष्ट्रवाद लगातार मजबूत हो रहा है. मूल बलोची अपने लिए अलग देश बलोचिस्तान की मांग कर रहे है.
बलोचिस्तान का राजनीतिक अतीत
पाकिस्तान के कब्जे को लेकर बलोच का लंबा संघर्ष रहा है. बलोच का इतिहास पाकिस्तान के निर्माण से पुराना है. बलोचिस्तान का इतिहास 12वीं सदी से शुरू होता है जब मीर जलाल खान ने करीब 44 बलोच जनजातियों को पहली बार एकजुट किया था.
अंग्रेजों के शासन के दौरान ब्रिटेन के कब्जे में इसका एक हिस्सा था लेकिन अंग्रेजों ने कभी बलोच मामलों में दखल नहीं दिया. इसकी वजह यह रही कि बलोच ने ब्रिटिश सेना को अफगानिस्तान में जाने के लिए रास्ता दिया.
आजादी से पहले बलूचिस्तान चार रियासतों में बंटा था. कलात, लासबेला, खरान और मकरान. विभाजन से करीब तीन महीने पहले मोहम्मद अली जिन्ना ने कलात नाम से स्वतंत्र राज्य के दर्जे का वादा किया जो चारों रियासतों को मिलकर बनता. कलात बलूचिस्तान की सबसे बड़ी रियासत था.
11 अगस्त 1947 में एक आदेश भी जारी किया गया जो कलात को एक संप्रभु और आजाद राज्य का दर्जा देता था. लेकिन अक्टूबर 1947 तक जिन्ना ने अपना विचार बदल दिया और उन्होंने कलात को पाकिस्तान में शामिल किए जाने का विचार रखा.
जिन्ना के प्रस्ताव का विरोध हुआ और फिर 26 अगस्त 1948 को पाकिस्तान की सेना बलोचिस्तान में घुस गई. बलोच पहचान को दबाने की कोशिशों का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान के पहले दोनों संविधान में बलोच को एक अलग समूह के तौर पर मान्यता नहीं दी गई.
बलोचों की आजादी की पहली लड़ाई इस कब्जे की प्रतिक्रिया में हुई. बलोचों ने पाकिस्तान की इस कोशिश को सैंडेमन सिस्टम (बलोच और ब्रिटिश समझौता, जिसके तहत सरदारों को स्वायत्ता दी जानी थी) का उल्लंघन माना.
खान-ए-कलात के छोटे भाई प्रिंस अब्दुल करीम खान ने 16 अप्रैल 1948 को राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन चलाने का फैसला किया. उन्होंने कलात स्टेट नेशनल पार्टी, बलोच लीग, और बलोच नेशनल वर्कर्स पार्टी के नेताओं के साथ बैठक कर ग्रेटर बलोचिस्तान के निर्माण की दिशा में पहल की.
भारत उस वक्त कश्मीर में पाकिस्तान की तरफ से भेजे गए कबायली हमलावरों से जूझ रहा था. लेकिन पाकिस्तान ने भारत पर प्रिंस को भड़काने का आरोप लगाया.
पाकिस्तान ने बलोच राष्ट्रवादियों को मास्को का एजेंट भी बताया. 1948 में ही करीम अन्य बलोच राष्ट्रवादी और कुछ कम्युनिस्ट नेताओं के साथ अफगानिस्तान चले गए और वहां से बलोच राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाने का काम करते रहे.
हालांकि प्रिंस करीम को अफगानिस्तान और रूस का अपेक्षित समर्थन नहीं मिला. अफगान अधिकारियों ने करीम को सहयोग तो नहीं दिया लेकिन उन्हें कंधार में राजनीतिक शरणार्थी के तौर पर रहने की अनुमति दे दी. अफगानिस्तान को इस बात की आशंका थी कि उसकी जमीन पर रह रहे बलोच और पश्तून कहीं उसके खिलाफ नहीं चले जाएं.
1958 का दूसरा प्रतिरोध
खान-ए-कलात ने पाकिस्तान से अलग होने के लिए विद्रोह किया. तत्कालीन राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा ने पाकिस्तानी सेना को कलात के महल पर कब्जा करने और खान को राष्ट्रद्रोह के आरोप में गिरफ्तार करने का आदेश दिया.
खान की गिरफ्तारी के बाद बलोचिस्तान के कई हिस्सों में विद्रोह हुआ जो करीब एक साल तक चला. इस दौरान नवरोज खान ने विद्रोह की कमान संभाले रखी.
1959 में उन्हें गिरफ्तार कर कैद में डाल दिया गया. 1964 में कैद में ही उनकी मौत हो गई. नौरोज बलोच प्रतिरोध की पहचान बन चुके हैं. उनके बेटों समेत पांच संबंधियों को फांसी दे दी गई.
तीसरा बलोच विद्रोह
तीसरी बार 1962 में मारी कबीले के नेतृत्व में बलोच विद्रोह भड़का. मारियो ने पंजाबी समुदाय के बढ़ते वर्चस्व का विरोध किया. उन्होंने सरदारों के विशेषाधिकार में कटौती और विकास कार्यों की उपेक्षा किए जाने को लेकर विरोध किया. लेकिन सेना ने सफलतापूर्वक इस विरोध को दबा दिया.
1962 में बनी वैश्विक परिस्थितियों की वजह से जुल्फिकार अली भुट्टो को बलोचिस्तान में शांति बहाली का दिखावा करने का मौका मिल गया. लेकिन इस बीच पाकिस्तान एक ऐसे युद्ध में उलझ गया जिसकी उसने कल्पना नहीं की थी.
1971 में जनरल याह्या खान, जुल्फिकार अली भुट्टो और मुजीबुर्रहमान बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में उलझे रहे और आखिरकार बांग्लादेश में पाकिस्तान को हार का सामना करना पड़ा.
बांग्लादेश के निर्माण ने बलोच राष्ट्रवादियों को बल दिया. उन्होंने राजनीतिक स्वायत्ता की मांग को लेकर पाकिस्तान की घेरेबंदी शुरू कर दी. भुट्टो ने पाकिस्तान के संसाधनों में अधिक हिस्सेदारी और अधिक स्वायत्ता की मांग को सिरे से खारिज कर दिया.
बांग्लादेश मुक्ति संग्राम बना प्रेरणा
पाकिस्तान ने भारत और अफगानिस्तान पर बलोच विद्रोह को भड़काने का आरोप लगाया. भुट्टो ने 1973 में बलोचिस्तान में फिर से सेना उतार दी. इस बार पाकिस्तान की सेना को ईरानी वायु सेना का भी समर्थन मिला.
ईरान को अपने इलाके में बलोच राष्ट्रवाद के उभार का डर सता रहा था. एक धारणा के मुताबिक ईरान के शाह रजा शाह पहलवी ने अमेरिका की अपील पर पाकिस्तान का समर्थन किया था.
पाकिस्तान इस विद्रोह को दबाने में सफल रहा और फिर जुल्फिकार अली भुट्टो के बाद जनरल जिया सत्ता में आए और उन्होंने रहीमुद्दीन खान को बलोचिस्तान का मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर बना दिया.
खान ने बेेहद सख्ती से बलोचिस्तान को चलाया. सरदारों के अधिकारों में कटौती की गई और इसी दौरान कुछ विकास कार्यों की शुरुआत हुई. हालांकि इस दौरान डेमोग्राफिक में बदलाव की शुरुआत हुई और बड़े पैमाने पर पंजाबियों और सिंधियों को सरकारी नीति के तहत बलोचिस्तान में बसाया जाने लगा.
पाकिस्तान बेहद शातिर तरीके से इलाके की डेमोग्राफी को बदलने में सफल रहा. यह सब कुछ रहीमुद्दीन खान के नेतृत्व में हुआ. नवाब अकबर खान बुग्ती और अतुल्लाह खान जैसे नेताओं को अलग थलग कर दिया गया और जनरल जिया ने हथियार छोड़ने वाले बलोचों को सार्वजनिक माफी दी. सेना के जबाव और डर से कई बड़े बलोच सरदारों ने पाकिस्तानी सेना के सामने समर्पण कर दिया.
1973 से लेकर 1988 के बीच बलोचिस्तान में अपेक्षाकृत शांति रही और इस दौरान पंजाबी, सिंधी और पठानों की आबादी बढ़ती रही. बलोचिस्तान में चलने वाले अधिकांश बड़े सरकारी और गैर सरकारी प्रोजेक्ट की जिम्मेदारी आज भी इन्हीं के हाथों में है.
इसके बाद तत्कालीन तानाशाह परवेज मुशर्रफ के कार्यकाल में दिसंबर 2005 में बलोच आंदोलन के खिलाफ पाकिस्तानी सेना ने सबसे आक्रामक सैन्य अभियान की शुरुआत की.
बंगाली राष्ट्रवादी आंदोलन की सफलता हमेशा से बलोच असमिता के आंदोलन को प्रेरित करता रहा है. 10 जनवरी 2005 को मुशर्रफ ने पाकिस्तानी टीवी को एक साक्षात्कार दिया था.
मुशर्रफ ने जो कहा, उससे यह साफ था कि पाकिस्तान बलोच पहचान के आंदोलन के कारण और उसके संभावित नतीजों को समझता है. लेकिन उन्होंने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम से कोई सबक नहीं लेने की जिद दिखाते हुए बलोच राष्ट्रवादियों को समझने की बजाए उन्हें धमकाना ही उचित समझा.
मुशर्रफ ने कहा, 'हमें मजबूर मत कीजिए. यह 1970 नहीं है और इस बार आपको पता भी नहीं चलेगा कि आप पर कैसे हमला हुआ है.'
मुशर्रफ का यह बयान इस बात की स्वीकारोक्ति थी कि बलोचिस्तान में वैसी ही पहचान की राजनीति जोर पकड़ रही है, जिसे नजरअंदाज किए जाने का खमियाजा पाकिस्तान को टूटकर चुकाना पड़ा था.
बलोचिस्तान का आर्थिक महत्व
इस्लामी गणराज्य पाकिस्तान में बलोचिस्तान की स्थिति बांग्लादेश (पूर्वी बंगाल) की तरह नहीं है. बलोचिस्तान पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हुए भी आर्थिक रूप से दरिद्र क्षेत्र है.
पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए रणनीतिक रूप से अहम होने के बावजूद यह पाकिस्तानी सेना के दमन और अधिकारियों की लूट का अड्डा बन चुका है.
बलोचिस्तान की मौजूदा लड़ाई सामाजिक और आर्थिक कारणों से है. बलोच राष्ट्रवादियों की मांग बलोचिस्तान के प्राकृतिक संसाधनों में उचित हिस्सेदारी की है.
पाकिस्तान के कुल गैस उत्पादन में बलोचिस्तान से निकलने वाले गैस की हिस्सेदारी करीब 45 फीसदी है लेकिन बलोचिस्तान को केवल 17 फीसदी गैस मिलता है. इतना ही नहीं देश के अन्य प्रांतों को पंजाब और सिंघ से निकलने वाले गैस के मुकाबले बलोचिस्तान से निकले वाले गैस को कम कीमत पर बेचा जाता है.
बलोच राष्ट्रवादी लंबे समय से मिलने वाली रॉयल्टी को बढ़ाने की मांग करते रहे हैं. पाकिस्तान बलोचिस्तान को केवल 12.6 फीसदी गैस की रॉयल्टी देता है.
बलोचिस्तान के सूई में 1953 में गैस मिला और 1964 में पंजाब को इस गैस की आपूर्ति शुरू हो गई लेकिन बलोचिस्तान को इस ब्लॉक से गैस की आपूर्ति 1986 में शुरू हुई.
बलोचिस्तान को उसके ही संसाधनों से किस तरह वंचित रखा गया, यह उसकी बानगी भर है. संसाधनों के मामले में पाकिस्तान का सबसे समृद्ध प्रांत होने के बावजूद बलोचिस्तान की महज 20 फीसदी आबादी को बिजली मिलती है.
अलग-थलग बलोचिस्तान
बलोचिस्तान में बलोच की आबादी करीब 45 फीसदी है जबकि पश्तून की आबादी 38 फीसदी. बाकी की 17 फीसदी आबादी में कई अन्य जातियां रहती हैं. हालांकि इसके बावजूद वहां चल रही बड़ी परियोजनाओं में बलोच लोगों की कोई भूमिका नहीं होती.
सभी बड़ी परियोजनाओं का ठेका गैर बलोच कंपनियों विशेषकर पंजाबी कंपनियों को दिया जाता है. कर्मचारियों की नियुक्ति में भी बलोच मूल के आधार पर भेदभाव किया जाता है. सेना और प्रशासन में भी आबादी के मुकाबले बलोच का प्रतिनिधित्व बेहद कम है.
बलोचिस्तान में तैनात फ्रंटियर कॉर्प्स के 30,000 जवानों में बलोच युवाओं की संख्या एक फीसदी से भी कम है जबकि तटीय सुरक्षा बल में बलोच मूल के लोगों की हिस्सेदारी तीन फीसदी से भी कम है.
पाकिस्तान की रीढ़ बना बलोचिस्तान
बलोचिस्तान की सीमा पाकिस्तान, ईरान और अफगानिस्तान से लगती है. बलोचिस्तान का क्षेत्रफल पाकिस्तान के क्षेत्रफल का करीब 43 फीसदी है और यहां पाकिस्तान की महज पांच फीसदी आबादी रहती है. गैस के अलावा यहां कोयला, तांबा, चांदी, प्लेटिनम, अल्युमिनियम, सोना और यूरेनियम का भंडार है.
तापी (तुर्कमेनिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान और पाकिस्तान) से होकर जाने वाली पाइपलाइन बलोचिस्तान से होकर गुजरने वाली है. पाकिस्तान बलोचिस्तान के जरिये ही समुद्र से जुड़ा हुआ है. पाकिस्तान के तटीय क्षेत्र की लंबाई करीब 765 किलोमीटर है और यह पूरा इलाका बलोचिस्तान प्रांत में ही आता है.
पाकिस्तान के तीन अहम नौसैनिक केंद्र इसी इलाके में आते हैं. निर्माणाधीन ग्वादर बंदरगाह इसी प्रांत में आता है जिसे सिंध के कराची के विकल्प के तौर पर विकसित किया जा रहा है. ग्वादर बंदरगाह को भारतीय नौसेना की सुरक्षा के लिहाज से संवेदनशील माना जाता रहा है.
अफगानिस्तान में आतंक के खिलाफ चल रही लड़ाई में बलोचिस्तान के सैन्य केंद्रों की अहम भूमिका है. भू-स्थैतिक, आर्थिक और सामरिक कारणों से बलोचिस्तान पाकिस्तान की जीवन रेखा है. यही वजह है कि बलोच राष्ट्रवादियों की मांग को पाकिस्तान साजिश बताते हुए सैन्य और इस्लामीकरण के जरिये दबाता रहा है.
दिसंबर 2005 के बाद बलोचिस्तान में सेना की मौजूदगी में अप्रत्याशित तौर पर बढ़ोतरी हुई है वहीं दूसरी तरफ मुशर्रफ सरकार के दौरान इस्लामी चरमपंथ को हवा दी गई ताकि सरदारों की पकड़ को कमजोर किया जा सके. पकिस्तान सरकार मुल्लाओं के असर को बढ़ाने के लिए मदरसों को तेजी से स्थापित कर रही है.
बलोच राष्ट्रवादियों के खिलाफ चरमपंथी संगठनों को आगे बढ़ाकर पाकिस्तान वैश्विक मंच पर धार्मिक आतंकवाद के खतरे के प्रति आगाह करने की कोशिश करता है लेकिन वास्तव में वह इसकी आड़ में बलोच राष्ट्र्रवादियों का दमन करता रहा है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बलोचिस्तान पर बयान देने के बाद दुनिया का ध्यान बलोचिस्तान की तरफ गया है और बलोचिस्तान के राष्ट्रवादी नेताओं को दुनिया के सामने अपनी समस्याओं को रखने का मजबूत आधार मिला है. मोदी के बयान के बाद पाकिस्तान ने यह कहने में देर नहीं लगाई कि भारतीय प्रधानमंत्री का बयान बलोचिस्तान में भारत की भूमिका को साफ करता है. हालांकि सच्चाई यह है कि बलोचिस्तान मामले को पाकिस्तान बेहद तंग नजरिये से देखता है.
बलोचिस्तान में पाकिस्तान की भूमिका संदिग्ध है, जिसकी पुष्टि उसके ही प्रतिनिधि करते रहे हैं. अमेरिका में पाकिस्तान केे पूर्व राजदूत रहे हुसैन हक्कानी का द अटलांटिक मैग्जीन को दिया गया साक्षात्कार पाकिस्तान की बलोच नीति की पोल खोल देता है. हक्कानी बताते हैं, 'बलोचिस्तान पाकिस्तान का सबसे जटिल इलाका है और दुर्भाग्यवश लोग इस समस्या को कमतर दिखाने की कोशिश करते रहे हैं. यह समस्या केवल पाकिस्तानी सेना, सत्ता में बैठे भ्रष्ट अधिकारियों के भ्रष्टाचार का या तालिबानियों की मौजूदगी का नहीं है. इसमें सभी शामिल है.'
उन्होंने कहा, 'सेना बलोच राष्ट्रवादियों का दमन करती है और कई बार वह यह काम आतंकियों की मदद से भी करती है.'
First published: 22 August 2016, 7:21 IST