क्या तीन तलाक का मुद्दा संवैधानिक पीठ को सौंपना सुप्रीम कोर्ट के लिए टर्निंग प्वाइंट है?

सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक के मामले पर चल रही सुनवाई में गुरुवार को अहम फैसला दिया. कोर्ट ने मामले को 5 लोगों की संवैधानिक पीठ को सौंपा है, जिससे यूनिफॉर्म सिविल कोड (यूसीसी) पर व्यापक बहस की संभावनाएं बनी हैं. संविधान ने इस मुद्दे पर कानूनी प्रक्रिया पहले ही शुरू कर दी थी. यह जानने के लिए कि कहीं मुस्लिम औरतों को मुस्लिम पर्सनल लॉ की वजह से भेदभाव तो नहीं सहना पड़ता.
मुद्दे पर शीर्ष स्तर के सरकारी अधिकारियों की बैठक पहले ही हो चुकी है. बैठक में केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली, रवि शंकर प्रसाद, मेनका गांधी और गोवा के मौजूदा मुख्यमंत्री और तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर मौजूद थे. खबरों के मुताबिक, ये सभी तीन तलाक के पक्ष में नहीं थे. विधि मंत्रालय ने पाकिस्तान, सऊदी अरब, और इराक सहित कई इस्लामिक देशों में इस व्यवस्था पर विचार किया. यहां इस व्यवस्था पर प्रतिबंध है.
भेदभाव
पिछले दिनों उत्तराखंड की एक मुस्लिम महिला सायरा बानो ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के तीन तलाक को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. इसी का विरोध करते हुए ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जामियत-ए-उलेमा ने सुप्रीम कोर्ट में ढेरों याचिकाएं दायर कर दीं.
30 मार्च को यह मामला 5 जनों की संवैधानिक पीठ को रेफर करने के बाद कोर्ट की कार्रवाई स्थगित कर दी गई. यह अहम फैसला भारत के मुख्य न्यायाधीश जे.एस.खेहर की अध्यक्षता में तीन न्यायाधीशों की पीठ ने किया. यह फैसला महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे यूसीसी पर बहस के दरवाजे खुलेंगे. यह बहस लिंग समानता और इससे जुड़े तीन मुख्य मुद्दों पर है-तलाक, उत्तराधिकार और बच्चों का संरक्षण.
यूसीसी का तर्क है कि जिस तरह एक गैर मुस्लिम को ‘निकाह’ (विवाह की मुस्लिम परंपरा) के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, उसी तरह एक मुस्लिम को सात फेरों के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता (विवाह की हिंदु परंपरा). किसी जनजातीय को भी उनकी अपनी परंपरा से बाहर विवाह के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. इसलिए जब विवाह अपनी परंपराओं के अनुरूप हो सकता है, तो तलाक, उत्तराधिकार, खासकर संपत्ति के मामलों में लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं हो सकता.
तुरंत तलाक
एपेक्स कोर्ट में केंद्र की तीन तलाक की मुखालफत उस बिंदु पर आ गई है कि यूसीसी पर अब भी बहस जारी है. केंद्र सरकार ने कहा था कि ‘धर्मनिरपेक्ष देश में तलाक उचित नहीं है.’ उसने दावे के साथ कहा कि भारत जैसे ‘धर्मरिपेक्ष देश’ में ‘औरत की गरिमा’ ‘मोल-भाव की वस्तु’ नहीं है, और कई इस्लाम देशों तक ने कानून में परिवर्तन किए हैं.
तुरंत तलाक के लिए कइयों ने तकनीक का भी इस्तेमाल किया है. ऐसे कई उदाहरण हैं, जब एसएमएस, फेसबुक और वॉट्सएप आदि से औरतों को तलाक दिया गया है. वॉट्सअप का एक मामला तो दिल्ली हाई कोर्ट में अब तक लंबित है. संभव है, यह मामला भी संवैधानिक पीठ के पास चला जाए.
न्यायपालिका के क्षेत्र से बाहर
एआईएमपीएलबी ने इस मामले में कहा कि कोर्ट अल्पसंख्यकों की धार्मिक स्वतंत्रता में दखल नहीं दे सकता. इसके खिलाफ ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमडब्ल्यूपीएलबी) का तर्क था कि जो मुस्लिम सोशल मीडिया या पोस्टकार्ड या कुछ इसी तरह के माध्यमों का तीन तलाक के लिए इस्तेमाल करते हैं, उन्हें सजा दी जाए क्योंकि यह पवित्र कुरान के खिलाफ है. पर ना तो एआईएमपीएलबी और ना ही एआईएमडब्ल्यूपीएलबी का पक्ष संवैधानिक है क्योंकि दोनों ही संवैधानिक संगठन नहीं हैं.
बीच-बचाव और सुलह
एआईएमडब्ल्यूपीएलबी की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर ने कहा, ‘अक्सर आदमी गुस्से के आवेग में तलाक दे देता है, पर बाद में पछताता है. फिर दंपति के हाथ में कुछ नहीं रहता क्योंकि मौलाना कहते हैं, तलाक हो चुका. हम इसे बदलना चाहते हैं.’ उन्होंने यह भी कहा कि एआईएमडब्ल्यूपीएलबी यूसीसी के पक्ष में भी नहीं है. उनका तर्क था कि जब मुस्लिम औरतों के लिए शरिया कानून है, तो उसका क्रियान्वयन भी सही ढंग से होना चाहिए.
मसलन निकाह हलाला, जिस पर दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट विचार कर रहा है, उसमें ‘हलाला’ का सवाल भी शामिल है. इसके हिसाब से तलाकशुदा औरत अपने पति के पास लौट सकती है. पर तभी जब वह पहले किसी दूसरे से विवाह करे और फिर उसे तलाक देकर वापस लौटे.
इस मामले में जाकिया सोमन ने भी याचिका दायर की थी. भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की संस्थापक सदस्य जाकिया ने कहा कि शाह बानो के 1980 के दशक के मध्य के मामले ने कुछ लोगों की सोच को बदला होगा. यह व्यवस्था ‘पवित्र कुरान के अनुकुल नहीं है क्योंकि कुरान में तलाक के फैसले से पहले बीच-बचाव और सुलह पर जोर दिया गया है.’
शाह बानो के मामले से राष्ट्र में हंगामा खड़ा हो गया था और नतीजतन आरिफ मोहम्मद खान को राजीव गांधी के मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा था. मुस्लिम औरतों के साथ भेदभाव करने वाले इस कानून में संशोधन की उन्होंने मुख़ालिफत की थी. देखना यह है कि क्या सायरा बानो के मामले का भी यही हश्र होगा.
यूसीसी बहस
सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि यह मामला लिंग न्याय से संबंधित है इसलिए संवैधानिक पीठ इस पर भी विचार करेगा कि कहीं मुस्लिम पर्सनल लॉ के कारण मुस्लिम महिलाओं को लिंग भेद का सामना तो नहीं करना पड़ता. पर इस मामले में शामिल कई पार्टियां यूसीसी पर बहस चाहती हैं. इसके मुख्य मुद्दे हैं-
1. तीन तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह की व्यवस्था भारतीय संविधान की धारा 25 (1) का उल्लंघन है, जो भारत के सभी नागरिकों को अपनी इच्छा का धर्म मानने, अम्ल करने, प्रचार करने और उपदेश करने का अधिकार देता है.
2. क्या यह अधिकार संविधान की धारा 14 और 21 के क्रमश: समानता के अधिकार और जीने के अधिकार से संबंधित है.
3. क्या मुस्लिम लॉ संविधान की धारा 13 का उल्लंघन है, जिसमें साफ लिखा है कि जो कानून संविधान की योजना के अनुरूप नहीं है, वह वैध नहीं है.
4. राज्य अपने नागरिकों से क्षेत्र, धर्म, भाषा और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा.
5. भारतीय संघ ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संधियों और अनुबंधों के तहत भारत की जवाबदेही के साथ असंगत है, जिन पर उसने दस्तखत किए हैं.
First published: 1 April 2017, 9:36 IST