मजबूत मोदी का मासूम बनारस

बनारस के अस्सी घाट पर शाम की आरती के बाद की भीड़ छंट चुकी है, अपनी अपनी नाव लंगर में डालकर सीढियों पर बैठे मल्लाह बताते हैं कि अब घाटों पर रौनक कम होती है, शहर से घाटों तक पहुंचने वाले रास्तों का जाम कम नहीं था कि मोदीजी के आने के बाद हर जगह सफ़ेद बल्ब लगा दिए गए हैं.
नतीजतन सारी रौनक चली गई. रात के अंधेरे में भी राजेन्द्र प्रसाद घाट पर किनारे बहकर चला आया कचड़ा साफ़ नजर आता है उधर शहर के दिल कहे जाने वाले गौदौलिया में सुबह छह बजे से रात 11 बजे तक फंसा रहने वाला भीड़ का दमघोटू रेला दिनों दिन बढ़ता जा रहा है.
बीएचयू के पुराने छात्रनेता नरेन्द्र नीरव कहते हैं, 'अब गोदौलिया पर अड़ी (अड्डेबाजी) नहीं जमती. शहर की गलियां और चौराहे गंदगी से बजबजा रहे हैं. मोदीजी के नाम पर शहर भर में शौचालय खुल गए हैं, लेकिन उनमे से अधिकांशतः गंदगी बढ़ाने का ही काम कर रहे हैं. न उनमे पानी है न ही शौच के निस्तारण का कोई इंतजाम.'
जब दो वर्ष पूर्व नरेन्द्र मोदी बनारस से सांसद बने तो सबको एक ही उम्मीद थी कि अब यह शहर शायद अपने रसूख के मुताबिक ही साफ-सुथरा होकर चमक उठेगा. मगर ऐसा अबतक नहीं हो सका है.
कहावत है कि बनारस यानि कि काशी शिव के त्रिशूल पर बैठी है मगर सच्चाई यह है कि एक मजबूत पीएम मोदी को पाने के बावजूद बनारस गंदगी और बेइन्तेहा आबादी के बोझ के नीचे बैठा है. आस्था का केंद्र आज भी मासूम नजरों से अपने पीएम को देख रहा है.
वही है गंगा वही बनारस
पीएम मोदी जब बनारस के सांसद बने तो सबसे पहला जोर उन्होंने गंगा और घाटों की सफाई पर दिया. नि:संदेह घाट तो पहले से साफ़ हो गए, लेकिन गंगा जैसी थी वैसी ही रही.
पीएम नरेंद्र मोदी के विरोधी भी इस बात को मानते हैं कि मोदी जी के सांसद बनने से बनारस के घाट पहले से सुन्दर हो गए हैं. लेकिन अफ़सोस यह है कि गंगा और बनारस आज भी बेहद प्रदूषित हैं.
गंगा किनारे भी और शहर में भी अतिक्रमण की बाढ़ है. मोदी जी को चुनने की एक बड़ी कीमत बनारस को यह भी चुकानी पड़ी है कि शहर में आबादी का बोझ आज पहले से भी काफी बढ़ गया है, आज किराए को लेकर बनारसी मजा लेते मिल जाते हैं कि बनारस और मुंबई में अब किराएं में कोई अंतर नहीं रह गया है.
आबादी के साथ शहर में गन्दगी भी उसी अनुपात में बढ़ी है. शहर से औसतन प्रतिदिन 800 मीट्रिक टन कूड़ा निकलता है लेकिन अब तक उसके निस्तारण का कोई उचित इंतजाम नहीं हो पाया है.
शहर के सीने पर आबादी का बोझ
एक वक्त आम बनारसी अपने शहर के बारे में यह कहते हुए गर्व करता था कि तीन लोक से काशी न्यारी. अंग्रेजों ने इस शहर की तुलना यूरोप के चेस्टर जैसे प्राचीन शहरों की है. पीएम मोदी भी बनारस को क्योटो बनाना चाहते हैं, लेकिन हकीकत यह है कि बनारस बना रहे यही बहुत मुश्किल लग रहा है.
समूचा बनारस आबादी के बोझ के नीचे कराह रहा है. एक मोटे अनुमान के मुताबिक़ बनारस शहर में प्रतिदिन 15 लाख लोग आते हैं और उतने ही लोग शाम ढले शहर से बाहर जाते हैं.
हर दिन इनमें से एक बड़ी संख्या शबर में ठहर जाती है. इसकी एक वजह यहां पर उपलब्ध चिकित्सा सुविधाएं भी हैं, जिनसे बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ की एक बड़ी जनसंख्या इस शहर की ओर आकर्षित होती हैं.
शहर के प्रवेश द्वार राजघाट पर ही पिछले 40 वर्षों शहर का समूचा कूड़ा बिना रिसाइकिल किये डंप किया जाता है नतीजा यह है कि शहर में प्रवेश करते ही भीषण दुर्गन्ध से सामना होता है. नगर निगम के पास योजनायें हैं मगर उनको क्रियान्वित करने की इच्छाशक्ति नहीं.
केन्द्रीय पूजा समिति के अध्यक्ष तिलकराज कहते हैं 'बनारस देश का सांस्कृतिक और आध्यात्मिक केंद्र है लेकिन पिछले कुछ समय से आस-पास के जिलों का व्यावसायिक केंद्र हो गया. पीएम मोदी से उम्मीद थी कि वो इस शहर की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत को बचाए रखने के लिए कुछ तात्कालिक उपाय करेंगे.'
तिलक कहते हैं इस शहर को बचाना है तो यहाँ पर जमीन की खरीद फरोख्त और नए निर्माणों पर तत्काल रोक लगानी होगी साथ ही आगरा की तर्ज पर बनारस के उद्योगों को बनारस से बाहर भेजना होगा.
जरूरी है बनारस को समझें मोदी
जब हम यह सवाल पूछते हैं कि बनारस को समझने में मोदी जी को दिक्कत कहां से आ रही है तो जवाब के लिए बहुत मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ता.
संकटमोचन मंदिर के पुजारी राधाकृष्ण मिश्र कहते हैं, “दरअसल केंद्र और यूपी सरकार दोनों ही इस शहर का विकास देश के अन्य शहरों की तरह करना चाहती है जो कि संभव नहीं है. सरकारें समझती नहीं है कि बनारस का विकास दिल्ली अहमदाबाद की तर्ज–पर नहीं किया जा सकता.
यहां की सड़कें, यहां कि गलियां, यहां की पेयजल और सीवेज का सिस्टम सब अलग ढंग का है. जब कभी नए तौर तरीकों से यहां कुछ किया जाता है समूचा शहर औंधे मुंह गिर पड़ता है.'
दरअसल मोदी जी को यूरोप और जापान को नहीं पडोसी देश श्रीलंका या अपने ही राज्य पद्दुचेरी को देखना चाहिए जहां शहरों की आतंरिक संरचना को बिना बदले उन्हें विकसित किया गया है.
सुप्रसिद्ध साहित्यकार व्योमेश शुक्ल कहते हैं कि बनारस की पलक एक बार झपकती है तो सौ साल बीत जाते हैं, दो की क्या हस्ती? ऐसे, नफ़रत, भय और पोलिटिकल रिपोज़िशनिंग के आलम में सार्थक तब्दीलियों की पहचान कैसे हो? उल्लेखनीय कुछ होना बाक़ी है, उसका इंतज़ार, कम से कम मुझे है. बनारस 'इवेंट प्लेस' न हो जाय. यह साधना की प्रक्रिया की जगह है, सिद्धि और परिणाम की जगह नहीं.
First published: 25 May 2016, 22:30 IST