'मोदी और ग़नी को मज़ार-ए-शरीफ़ पर हमले का संकेत समझना होगा'

- भारत और अफ़ग़ानिस्तान के बीच बेहतर होते रिश्ते से ख़फ़ा है पाकिस्तानी सेना. पाक सेना मज़ार-ए-शरीफ़ जैसे धमाकों से संदेश देना चाहती है कि उसके बिना इलाक़े में कोई साझेदारी संभव नहीं.
- भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अफ़ग़ान राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी को पाक सेना की भूमिका और मंसूबों को समझते हुए ही बनानी होगी भविष्य की रणनीति.
तीन जनवरी को अफ़गानिस्तान के मज़ार-ए-शरीफ़ स्थित इंडियन कॉन्सुलेट जनरल पर हुए हमले से ये एक बार फिर साबित हो गया कि पाकिस्तान को अफ़ग़ानिस्तान में भारत कौ मौजूदगी रास नहीं आती.
इलाक़े के पुलिस प्रमुख सैयद कमाल सादात ने अपने बयान में कहा था, "99 प्रतिशत संभावना" है कि हमलावर 'पाकिस्तानी सेना से जुड़े थे और उन्होंने हमले में विशेष तकीनीक का प्रयोग किया.'
अफ़ग़ानिस्तान को पाकिस्तान प्रशिक्षित आंतकी समूहों से निपटने का लंबा अनुभव रहा है. ऐसे समूहों में पाक सेना के कार्यरत या सेवानिवृत्त जवान भी शामिल होते हैं. ऐसे में सादात के बयान को हल्के में नहीं लिया जा सकता. फिर भी भारत के गृह मंत्री राजनाथ सिंह पठानकोट में हुए आतंकी हमले की जांच और कार्रवाई के मामले में पाकिस्तान पर 'अविश्वास' नहीं करना चाहते.
कुछ कूटनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पटानकोट हमला और मज़ार-ए-शरीफ़ हमला आपस में जुड़े हुए हैं
कुछ लोगों को संदेह है कि पठानकोट हमला और मज़ार-ए-शरीफ़ हमला आपस में जुड़े हुए हैं. इनके द्वारा पाक सेना भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कुछ संदेश देना चाहती है. पहले पहल तो पाक सेना अपने ग़ुस्से का इजहार करना चाहती थी क्योंकि मोदी ने अफ़ग़ानिस्तान संसद के उद्घाटन के मौके पर पाकिस्तान को आंतक की नर्सरी और शरणगाह कहा था.
मोदी ने पाकिस्तान के उस आरोप का भी मजाक उड़ाया जिसमें कहा गया कि भारत अफ़ग़ानिस्तान में आधिकारिक चार कॉन्सुलेट से ज्यादा कॉन्सुलेट चला रहा है. मोदी का बयान मौक़े के अनुकूल था. पाकिस्तान, भारत-अफ़ग़ानिस्तान के बीच नजदीकी बढ़ने की संभावना से डरा हुआ है. इस तरह वो दोनों तरफ से घिर जाएगा. उसकी पूर्वी सीमा पर भारत का दबाव पहले से ही है और अफ़गान-भारत संयुक्त हो गये तो उसकी पश्चिमी सीमा पर भी परोक्ष दबाव बन जाएगा.
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पाकिस्तान भारत पर बलूचिस्तान में अशांति पैदा करने का आरोप लगाता रहा है. इस इलाक़े में पाकिस्तान की आत्मघाती नीतियों के वजह से 1947 से अशांति है. पिछले कुछ सालों से पाकिस्तान भारत पर ख़ैबर पख्तूनख़्वा में पाकिस्तानी विरोधी कबायली गुटों की मदद का आरोप लगाता रहा है.
अफ़ग़ानिस्तान में कथित 'भारतीय-खतरे' से निपटने के लिए पाकिस्तान हमेशा वहां ऐसी सरकार चाहता रहा है जो भारत की मौजूदगी को न्यूनतम रखे. ख़ुफ़िया और रक्षा सेक्टर में तो अफ़ग़ानिस्तान भारत के संग बिल्कुल साझीदारी न करे.
नवाज़ शरीफ़ जब 1990 के दशक में पहली बार प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने पहला मक़सद पूरा करने की कोशिश की थी. तत्कालीन अफ़ग़ान राष्ट्रपति नजीबुल्लाह मुजाहिदीनों पर नियंत्रण रखने में विफल रहे थे. नतीजन उन्हें गद्दी छोड़नी पड़ी थी.
पाकिस्तान भारत पर ख़ैबर पख़्तूनख़्वा में पाक विरोधी कबायली गुटों की मदद का आरोप लगाता रहा है
जब पाकिस्तान स्थित अफ़ग़ान मुजाहिदीनों पर पेशावर समझौते का दबाव बनाया गया तो अफ़ग़ानिस्तान में मुजाहिदीन सरकार बनी. इनमें से एक गुट के नेता सिबगतुल्लाह मोजाद्दी राष्ट्रपति बने तो उसके तुरंत बाद नवाज़ शरीफ़ अफ़ग़ानिस्तान के दौर पर गये. पाकिस्तान ने इसे जीत की तरह से पेश किया तो अफ़ग़ानिस्तान में कई लोगों ने इसे 'पंजाबी' दखल के रूप में देखा.
पेशावर समझौता ज्यादा दिन नहीं टिका और गृह युद्ध छिड़ गया. पाकिस्तान ने अहमद शाह मसूद के ख़िलाफ़ गुलबुद्दीन हिकमतयार का समर्थन किया. दूसरी तरफ मोजाद्दी की जगह बुरहानुद्दीन रब्बानी राष्ट्रपति बने जो मसूद के नेता थे.
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नई अफ़ग़ान सरकार ने पाकिस्तानी दखल पर लगाम लगाने के लिए भारत, ईरान और रूस की तरफ हाथ बढ़ाया. जाहिर है पाकिस्तान की भारत को अफ़ग़ानिस्तान से बाहर रखने की नीति विफल हो गयी.
जब ये साफ हो गया कि हिकमतयार मसूद पर नियंत्रण नहीं रख सकेंगे तब पाकिस्तान ने तालिबान बनाया. पाकिस्तान सेना की मदद से तालिबान ने सितंबर 1996 में काबुल पर कब्जा कर लिया. अगल दो सालों में उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान के 90 फ़ीसदी हिस्से पर कब्जा कर लिया.
हालांकि संयुक्त राष्ट्र रब्बानी और उनकी सरकार को ही राष्ट्र का प्रतिनिधि मानता रहा. रब्बानी और उनके सहयोगी दलों का भारत से अच्छा संबंध था. पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान के अंदर गृह युद्ध को रोकने के लिए किए जा रहे अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक प्रयासों से भारत को बाहर रखने में सफल रहा लेकिन भारत का इलाक़े में प्रभाव कम नहीं हुआ.
अमेरिका में हुए 9/11 के आतंकी हमले के बाद अमेरिका गठबंधन ने तालिबान को उखाड़ फेंका तो वो पाकिस्तान में जाकर छिप गये. पाकिस्तान ने उनकी मदद जारी रखी. उसके बाद हामिद करज़ई देश के राष्ट्रपति बने. उनका भी भारत के साथ अच्छे संबंध थे.
पाकिस्तान के साथ दोस्ती करके हाथ जलाने के बाद अफ़ग़ानिस्तान ने बढ़ाया भारत की तरफ़ हाथ
पाकिस्तान ख़ुद को अफ़ग़ानिस्तान में अलग थलग महसूस करने लगा. उसके ख़िलाफ़ यहां की जनता में आक्रोश बढ़ता गया. दूसरी तरफ़ भारत को वहां दोस्त के रूप में देखा जाता है जिसने कभी अफ़ग़ानिस्तान के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं दिया.
करज़ई ने शुरुआत में भारत और पाकिस्तान के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की. उन्होंने पाकिस्तान से तालिबान की मदद बंद करने का अनुरोध किया. वो चाहते थे कि पाकिस्तान तालिबान पर अफ़ग़ानिस्तान सरकार से बातचीत करने के लिए प्रेरित करे. जब पाकिस्तान ने उनका अनुरोध ठुकराते हुए इसके ठीक उलट किया तो तालिबान एक बार फिर मजबूत होकर उभरने लगे. फिर करज़ई ने भारत से रणनीतिक मदद मांगी.
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करज़ई का भारत की तरफ़ हाथ बढ़ाने की यही एकमात्र वजह नहीं थी. पश्चिम के संग उनके रिश्ते बिगड़ रहे थे इसलिए उन्हें एक रणनीतिक साझीदार की जरूरत थी. भारत पहला देश था जिसके संग उन्होंने रणनीतिक साझेदारी समझौता किया.
अफ़ग़ानिस्ता में भारत की बढ़ती मौजूदगी से पाकिस्तान निराश था. भारत के लोकप्रिय सहायता कार्यक्रमों का मुक़ाबला करना उसके लिए संभव नहीं था. भारत की यूपीए सरकार ने अफ़ग़ान सुरक्षा बलों को प्रशिक्षण देने के अपने कार्यक्रम को सीमित कर लिया था. पाकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान में भारत और उसके सहायता कार्यक्रमों को धक्का पहुंचाने की कोशिश की. लेकिन भारत के डिप्लोमैटिक मिशन पर हमले में भूमिका निभा कर पाकिस्तान ने ख़ुद अपनी भूमिका सीमित कर ली.
साल 2003 से ही अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय परिसंपत्तियां पाकिस्तान के निशाने पर रही हैं. आने वाले सालों में भारतीय संस्थानों पर तीन बड़े हमले हुए. जुलाई 2008 में हक़्क़ानी नेटवर्क ने भारतीय दूतावास पर हमला किया जिसकी प्रायोजक पाक सेना थी. इस हमले में कम से कम 58 लोग मारे गये थे जिनमें ज्यादातर अफ़ग़ान थे. मरने वालों में दो भारतीय अधिकारी ब्रिगेडियर रवि दत्त मेहता और वेंकटेश्वर राव भी शामिल थे.
अक्टूबर 2009 में भारतीय दूतावास पर फिर हमला हुआ और 17 लोग मारे गये. एक साल बाद दो गेस्ट हाउसों पर हमला हुआ जिसमें भारतीय सहायता कार्यक्रम के कार्यकर्ता रुके हुए थे. मरने वालों में भारतीय सैन्य अधिकारी भी थे.
पाकिस्तान ने लंबे समय तक मुल्ला उमर की मौत की ख़बर दबाए रखकर अफ़ग़ानिस्तान को धोखे में रखा
इन हमलों के बावजूद भारत ने एक दायरे के भीतर अफ़ग़ानिस्तान के संग बातचीत जारी रखा. भारत ने इन उकसावों पर कोई उग्र प्रतिक्रिया नहीं दी.
भारत में मई, 2014 में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने. दूसरी तरफ़ अफ़गानिस्तान में नेशनल यूनिटी की सरकार बनी. अशरफ़ ग़नी राष्ट्रपति और अब्दुल्ला अब्दुल्ला देश के सीईओ बने.
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मोदी के शपथग्रहण से कुछ समय पहले ही हेरात स्थिति भारतीय कॉन्सुलेट पर हमला हुआ था. जिसे नाकाम कर दिया गया था. इस हमले का मक़सद मोदी को ये संदेश देना था कि पाकिस्तान की भारतीय नीति पाक सेना तय करती है और अफ़ग़ानिस्तान में भारत उसके निशाने पर है. ग़ौरतलब है कि मोदी के शपथग्रहण में पाक प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने भी शिरकत की थी.
ग़नी ने तालिबान से बातचीत में पाक की मध्यस्थता के लिए करज़ई से भी आगे बढ़कर पहल की. वो इसके लिए भारत के संग अपने रिश्तों को भी दांव पर लगाने के लिए तैयार लग रहे थे. लेकिन तालिबान और अफ़ग़ान प्रतिनिधियों के बीच पिछले साल जुलाई में हुई पहली बैठक में ही पाकिस्तान का दोहरापन सामने आ गया. ये राज़ सबके सामने आ गया कि मुल्ला उमर की मौत हो चुकी है. पाकिस्तान ने ये जानकारी लंबी समय से दबा रखी थी.
इसके बाद ग़नी ने अब्दुल्ला के सुझाव पर भारत की तरफ़ हाथ बढ़ाया. लेकिन वो पाकिस्तान को तालिबान का ख्याल रखने का आश्वासन भी देते रहे.
मज़ार-ए-शरीफ़ पर हुआ हमला ग़नी के लिए उतना ही बड़ी चेतावनी है जितनी की मोदी के लिए. क्या ये दोनों नेता इसे भांप सकेंगे?