ओबामा का भारत-पाकिस्तान को साथ जोड़ना पीएम मोदी के लिए झटका!

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न्यूक्लियर सिक्योरिटी समिट में हिस्सा लेने अमेरिका गए थे. वाशिंगटन में आयोजित चौथी और आखिरी समिट पीएम मोदी के लिए एक हद तक कामयाब मानी गई.
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने छह साल पहले जब इस मुहिम की शुरुआत की थी उसी वक्त से भारत एक सक्रिय सहयोगी की भूमिका निभा रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इसमें काफी दिलचस्पी दिखाई.
न्यूक्लियर समिट के दौरान एक नेशनल प्रोग्रेस रिपोर्ट पेश की गई जिसमें हाल के सालों में भारत की ओर से उठाए गए अहम कदमों पर प्रकाश डाला गया. इस रिपोर्ट में राष्ट्रीय कानून में मजबूती और परमाणु सुरक्षा से जुड़ी कार्यप्रणाली के साथ ही इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी यानी आईएईए और इंटरपोल के साथ संबंध बढ़ाने पर जोर दिया गया.
भारत-पाकिस्तान पर साझा नजरिया
इस लिहाज से समापन प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान ओबामा का भारत और पाकिस्तान पर एक साथ बात करना भारतीय प्रतिनिधिमंडल को नागवार गुजरा. गुजरे वक्त को पीछे छोड़कर भारत और अमेरिका अब ऐतिहासिक द्विपक्षीय संबंधों के दौर में हैं.
समिट में प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान ओबामा से अमेरिका के परमाणु हथियार आधुनिकीकरण कार्यक्रम और इस पर रूस-चीन की प्रतिक्रिया को लेकर सवाल पूछा गया. राष्ट्रपति ओबामा ने रणनीतिक हथियार भंडार में कमी ना कर पाने पर अफसोस जताया.
ओबामा ने कहा कि वो ज्यादा कमी का लक्ष्य हासिल नहीं कर सके हैं और अमेरिका का परमाणु शस्त्रागार पहले जैसा है. ओबामा ने हालांकि कहा कि ये जरूरी है कि परमाणु हथियार सुरक्षित और भरोसेमंद हाथों में रहें.
ओबामा का बयान भारत के लिए झटका
इसके बाद ओबामा ने अहम बात कही. अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा, "हमें ये देखने की जरूरत है कि भारत और पाकिस्तान ने परमाणु क्षमता विकसित कर ली है लेकिन कहीं वो लगातार गलत रास्ते पर तो नहीं जा रहे हैं.
वहीं उत्तर कोरिया की चुनौती का जिक्र करते हुए ओबामा ने अपना जवाब पूरा किया और साथ ही प्रेस कॉन्फ्रेंस का भी समापन हो गया. उम्मीद के मुताबिक भारत का जवाब भी आ गया.
भारतीय प्रवक्ता ने ओबामा के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा, "ऐसा लगता है कि भारत के रक्षा संबंधी रुख को समझने में भूल हुई है. उन्होंने पहले परमाणु हथियार ना इस्तेमाल करने की भारत की नीति की तारीफ की."
साथ ही ओबामा के शुरुआती बयान के बारे में कहा, "कुछ देशों में परमाणु हथियारों का जखीरा बढ़ रहा है जिसमें छोटे सामरिक हथियार शामिल हैं. इसके चलते परमाणु हथियारों की चोरी का खतरा भी बढ़ रहा है. जो पाकिस्तान की ओर चिंता जाहिर करता है."
राष्ट्रपति ओबामा के बयान से ये भी साफ है कि वाशिंगटन में परमाणु अप्रसार लॉबी भारत-पाकिस्तान के बारे में साझा रुख से अलग हटने को नापसंद करती है.
जहां तक भारतीय पक्ष की बात है ओबामा के इस रुख से अमेरिकी एजेंडे में संदेह और अविश्वास को बढ़ावा मिलता है. साथ ही इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए घरेलू विरोध के सुर भी नजर आते हैं.
न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में मिलेगा प्रवेश ?
हालांकि संतुलित शब्दों में कहें तो मोदी वाशिंगटन में अपना न्यूक्लियर एजेंडा आगे बढ़ाने में कामयाब रहे. भारतीय रणनीति के तीन उद्देश्य थे. पहला भारतीय न्यूक्लियर इंडस्ट्री की मजबूत आंतरिक सुरक्षा और कार्यशैली पर जोर.
दूसरा भारत को जिम्मेदार परमाणु क्षमता वाले देश के रूप में पेश करना. जो परमाणु सुरक्षा को लेकर दुनिया भर में चल रहे प्रयासों में अहम योगदान दे रहा है. तीसरा और आखिरी उद्देश्य न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में भारत के बहुप्रतीक्षित प्रवेश को लेकर चल रहे विरोध को कम करना.
1962 का एटॉमिक एनर्जी एक्ट बुनियादी ढांचे के साथ ही सरकारी नियंत्रण की सुविधा देता है. साथ ही इसके तहत आने वाले कई कानून संवेदनशील पदार्थों के निर्यात का लाइसेंस और तकनीक पर भी काबू पाने में मदद करता है.
नेशनल इंवेस्टिगेशन एजेंसी को परमाणु आतंकवाद पर रोक के अलावा प्रमुख आतंकवाद निरोधी एजेंसी का ओहदा दिया गया है.
13 सदस्यों के ग्लोबल समूह में भारत
अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से मुकाबला करने के लिए जो 13 समूह हैं उनमें भारत भी शामिल है. बेहतर अभ्यास के अलावा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ट्रेनिंग कोर्स के लिए दिल्ली में ग्लोबल सेंटर फॉर न्यूक्लियर एनर्जी पार्टनरशिप यानी जीसीएनईपी स्थापित किया गया है.
इसमें कोई भी लापरवाही न्यूक्लियर एनर्जी को लेकर लोगों का भरोसा डिगा सकती है. जो कि भारत की लंबे समय से चली आ रही ऊर्जा रणनीति का आधारभूत हिस्सा है.
इसलिए वाशिंगटन परमाणु सुरक्षा समिट में घरेलू मजबूरियों के साथ ही वैश्विक परमाणु अप्रसार के बारे में वचनबद्धता भी भारत के लिए अहम मुद्दा रहा. यही वजह रही कि समिट के दौरान तीन मुद्दों पर खासा जोर रहा.
पहला उत्कृष्टता के केंद्र के बारे में लेन-देन जिसमें जीसीएनईपी प्रमुख है. दूसरा परमाणु तस्करी से मुकाबला और तीसरा विएना का समूह जो न्यूक्लियर समिट के क्रियाकलापों की की जांच का प्लान तैयार करेगा.
प्रधानमंत्री मोदी का कनाडा, जापान, कजाकिस्तान, ब्रिटेन, न्यूजीलैंड और स्विटजरलैंड के नेताओं के साथ द्विपक्षीय मेलजोल संकेत देता है कि न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप यानी एनएसजी की सदस्यता एजेंडे में मुख्य रूप से शामिल थी.
हालांकि एनएसजी की ओर से 2008 में मिली विशेष छूट के चलते भारत एक दर्जन से ज्यादा देशों के साथ यूरेनियम ईंधन की लंबे समय तक सप्लाई के लिए समझौता करने का हकदार है. वहीं एनएसजी की सदस्यता भारत की परमाणु डिप्लोमेसी के लिए अब भी सबसे अहम राजनीतिक उद्देश्य है. शीत युद्ध से लेकर उसके अंत तक भारत और अमेरिका ने नए संबंध बनाए.
शीत युद्ध की अंतहीन विरासत !
द्विपक्षीय बातचीत में भारत का सबसे अहम उद्देश्य अमेरिका के नीति निर्धारकों को साउथ एशिया के बारे में साझा नजरिया बनाने से दूर रखना है. जो कि शीत युद्ध के दौरान कसौटी था.शीत युद्ध के दौरान अलग रहना भारत की वैचारिक मजबूरी थी. क्योंकि पाकिस्तान अमेरिकी अगुवाई वाले दो गठबंधनों सीटो और सेन्टो का सदस्य था. भारत ऐसे दौर में गुट निरपेक्ष रहते हुए आगे बढ़ा.
जिससे कि दक्षिण एशिया के दो देशों की दुश्मनी खत्म होती नहीं दिखी. ऐसे में भारत-पाकिस्तान को एक तराजू पर तौलना राजनीतिक तिकड़म के लिहाज से आसान है.
वहीं एक तथ्य बार-बार उभर आता है कि शीत युद्ध के 25 साल बीतने के बावजूद पुरानी विचारधारा में बदलाव लाना कितना मुश्किल है. जबकि वो अपनी मान्यता खो चुकी है.
इसकी एक वजह शीत युद्ध की विरासत है जिसने एशिया को कई टुकड़ों में देखा है. सुदूर पूर्व, पूर्व, दक्षिण-पूर्व, दक्षिण और पश्चिम एशिया की पहचान इसकी मिसाल है.
आज इसके उलट होता नजर आ रहा है. जिसमें यूरेशिया की जमीन और लोगों की अहमियत बढ़ गई है. समुद्री अधिकार क्षेत्र में इंडो-पैसिफिक अवधारणा मजबूत हो रही है.
अनिश्चित दुनिया में भारत के लिए आगे की राह संकुचित नहीं है. लेकिन साझा नजरिये को इतिहास के हवाले करने के लिए अपनी शर्तों के साथ आपसी संबंधों को आगे ले जाना भारत के लिए जरूरी है.