आज हर कश्मीरी के मन में यह बात है कि भारत और बाकी दुनिया ने उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया है

- कश्मीर में हड़ताल, विरोध प्रदर्शन, स्कूलों की बंदी और अलगाववादी नेताओं की नज़रबंदी पहले भी होती रही है.
- मगर फिलहाल वहां जिस तरह की हताशा और निराशा पैदा गई है, उससे लगता है कि हालात काफी बिगड़ गए हैं.
कश्मीर के हालात सचमुच भयावह हैं. ऐसा नहीं है कि इससे पहले वहां सुरक्षाबलों को नागरिकों की मौत के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया गया या फिर उनके ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन नहीं हुआ. पहले भी वहां स्कूल बंद हुए हैं. अलगाववादी नेताओं के इशारों पर दुकानों के शटर गिरे हैं. पहले भी अलगाववादी नेताओं पर पाबंदियां लगी हैं और कुख्यात पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत बडड़ी संख्या में लोगों को जेल में भी डाला गया है.
फिर क्यों ऐसा लग रहा है कि कश्मीर में मौजूदा राजनीतिक हालात से उपजी हताशा और निराशा अप्रत्याशित है?
कश्मीरियों को धीरे-धीरे एहसास होने लगा है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के पास उनके लिए फुर्सत नहीं है. दुनिया का सारा ध्यान इस वक्त पश्चिमी एशिया पर लगा हुआ है, जहां कश्मीर से कहीं बड़ा इस्लामिक समुदाय संकट में है. सीरिया में रूस या अमेरिका का एक गलत कदम दुनिया को तबाही की ओर धकेल सकता है.
भारत की अमेरिका के साथ बढ़ती दोस्ती और वैश्विक आर्थिक विकास में बढ़ती भूमिका के चलते पूरी दुनिया चाहती है कि भारत उसके साथ हो. दुनिया के बाकी देश भारत को प्रोत्साहित करने में अधिक दिलचस्पी ले रहे हैं, बजाय उसकी किसी घरेलू समस्या पर ध्यान देने के.
दूसरी ओर पाकिस्तान पर आतंकवाद के पालने-पोसने का ठप्पा लग चुका है और भारत के साथ उसके विवादों के संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाक अपनी साख खो चुका है. साफतौर पर कहा जाए तो उरी हमले से पाकिस्तान और कश्मीर को सबसे ज़्यादा नुकसान पहुंचा है.
कश्मीर में आवाम का जो गुस्सा भड़का था उसका स्वरूप आंतरिक विरोध का था लेकिन उरी हमले ने भारत की धरती पर पाक प्रायोजित आतंकवाद को इतना बढ़ा दिया कि कश्मीरियोंं का अंतरिक प्रतिरोध दब गया.
मोदी की कश्मीर नीति
नरेंद्र मोदी के केंद्र में सत्ता संभालते ही भारत में अंदरूनी तौर पर कश्मीरियों को कुछ उम्मीद जगी थी कि वे कश्मीर पर अटल बिहारी वाजपेयी की नीति को आगे बढ़ाएंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
बजाय इसके मोदी सरकार की अपनी ही तरह की ब्रांडेड राजनीति बढ़ाई, इसका नतीजा यह हुआ कि राष्ट्रीय, सामाजिक और राजनीतिक हालात बिगड़ गए हैं. सरकारी नीतियां जाने-अनजाने भारत को एक राष्ट्रीय सुरक्षा स्टेट के रूप में तब्दील करती जा रही हैं. सरकार यह उम्मीद करती है कि सुरक्षा पर उसका जो नजरिया है, उससे हर आदमी सहमत होगा. लिहाजा कश्मीर का जो मसला राजनीतिक था उसे राष्ट्रीय सुरक्षा और कानून व्यवस्था का मसला बना कर देखा जाने लगा है.
कश्मीर में बीजेपी-पीडीपी गठबंधन की सरकार के चलते हालात बेहद जटिल और मुश्किल बन गए हैं. इसने जम्मू-कश्मीर के प्रशासनिक ढांचे में बीजेपी की हिन्दुत्व विचारधारा वाली राजनीति को प्रशासन में एख तरह से वैधता दिला दी है. नतीजा यह हुआ कि बीजेपी को लगता है कि कश्मीर की समस्या हिन्दू-मुस्लिम समस्या है और राज्य का शासन कुछ इस तरह हो रहा है, जैसे हिन्दू बहुल जम्मू और मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी में रोटी-बोटी के लिए आमने सामने खड़ा कर दिया है.
भारत-पाक के बीच विवाद के चलते कश्मीर के हालात को लेकर लोगों के नजरिये पर असर पड़ा है. असंतुष्ट कश्मीरियों की तुलना पाकिस्तानियों से की जा रही है और कश्मीर में होने वाली हर घटना के लिए पाकिस्तान पर ठीकरा फोड़ा जाता है. इस रवैये के चलते पिछले सात दशक से हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि कश्मीरियों में पनप रहा अलगाव ही कश्मीर को सुलगाए हुए है, जिसे समझने की जरूरत है.
हर बात को जरूरत से ज्यादा आसान बनाते हुए सीधे-सीधे यह मान लिया गया है कि कश्मीर की डोर पाकिस्तान के हाथ में है, इसी वजह से हर प्रदर्शनकारी को पाक समर्थक मानकर हाशिए पर खड़ा कर दिया गया है, फिर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस 'दुश्मन' को शॉट गन से मारा जाए या पैलेट गन से.
टीवी चैनलों, राष्ट्रीय दैनिक अखबारों के रक्षा और गृह मंत्रालय कवर करने वाले रिपोर्टरों ने कश्मीर को लेकर इस संकीर्ण दुष्प्रचार में आग में घी डालने का काम किया है. यह एक तरह से अपना हित साधने जैसा है, क्योंकि इससे सत्ताधरी पार्टी को अपने राजनीतिक हित साधने का मौका मिल जाता है और वह यह जताने की कोशिश कर रही है कि वह राष्ट्रहित में अकेले ही हालात से जूझ रही है. सरकार के हर आलोचक से यही पूछा जाता है कि वह भारत के साथ है या खिलाफ?
कश्मीर और कश्मीरियों में आ रहा बदलाव चिंताजनक है. लोगों के बीच उम्मीद से कहीं ज़्यादा निराशा और हताशा पसरी है. कश्मीरियों को लगता है, जैसे उन्हें नक्शे से हटा दिया गया हो. भारतीयों या किसी और को भी उनके भविष्य की परवाह नहीं है. जब देश के दूसरे राज्यों के लोगों ने कश्मीरियों के दुख तकलीफ के प्रति ज्यादा चिंता नहीं दिखाई तो कश्मीरियों का उस राजनीतिक दावे से विश्वास उठना लाजमी था जिसके तहत कहा जाता है कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है.
कश्मीरी इसे राजनीतिक दांव से ज्यादा कुछ नहीं मानते. वे कहते हैं भारत को केवल कश्मीर की जमीन में दिलचस्पी है, कश्मीरियों में नहीं. उन्हें लगता है कि टीवी चैनलों और केंद्र सरकार ने लोगों की आंखों पर चश्मे चढ़ा दिए हैं कि वे उन्हें पाकिस्तान की नजर से देखें.
जब अटल बिहारी वाजपेयी ने इंसानियत और जम्हूरियत की बात की तो कश्मीरियों को लगा कि वे गंभीर हैं. वाजपेयी की कई पहल से यही जाहिर भी होता था. आज, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाजपेयी के ही जुमले दोहराते हैं तो वे उनमें कहीं न कहीं वाजपेयी को तलाशते हैं.
कश्मीरियों के मन में यह सवाल क्यों उपजा कि देश के बाकी लोगों को बुरा नहीं लगता जब कश्मीर में 4 से 12 साल के बच्चे पैलेट गन से अंधे कर दिए जाते हैं या फिर जब चार महीने में हुई गोलीबारी मे 100 लोग मारे जाते हैं. आखिर कश्मीर में भीड़ को काबू करने के लिए पैलेट गन क्यों इस्तेमाल की जाती है. हरियाणा में हंगामा मचाने वाले जाटों पर पैलेट गनों का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाता? क्यों नहीं कावेरी जल विवाद पर कर्नाटक में बसें फूंकने और दूसरे वाहन जलाने वालों पर इनका इस्तेमाल किया जाता?
हो सकता है कि सरकार के पास अपनी हरकतों के पक्ष में कोई जवाब हो लेकिन यह सवाल आम भारतीय को शर्मिन्दा करने के लिए काफी हैं.
कश्मीर में सबसे बड़ा बदलाव यह आया है कि कश्मीर का युवा अब भारतीय सुरक्षा बलों से नहीं डरता. वह सामने आकर उनसे भिड़ जाता है, परिणाम की परवाह किए बिना. सड़कों पर अराजकता फैली है और अलगाववादी नेता जेल मे बंद हैं.
एक आशंका यह भी बलवती होती है कि कहीं इसके पीछे पाक स्थित गुटों से जुड़े आतंकी तत्व तो नहीं हैं, जो इन सारी गड़बड़ियों के लिए जिम्मेदार हों और इसे और बढ़ाने वाले हों.
देश के बाकी हिस्सों के लोग कह सकते हैं कि कश्मीर को पथराव से कुछ हासिल होने वाला नहीं है लेकिन कश्मीर में ऐसा नहीं है, वे इसके ठीक उलट सोचते हैं. वे मानते हैं कि पथराव करने वाले बच्चों ने भारत को चेताया तो है. आखिरकार, वे संसद में कश्मीर मसले और पैलेट गन पर बहस तो करते नजर आए. वे कहते हैं, दुनिया ने भी देखा है कि सुरक्षा बल कश्मीर में क्या कर रहे हैं.
सच्चाई यह है कि आज सड़कों पर दस ऐसे लोग मिल जाएंगे जो सेना से यह कहने की हिमाकत करते हैं, 'शूट अस, ब्लाइंड अस' (गोली चलाओ, हमें अंधा कर दो). इन सड़कों पर अब सीधी-सादी पुरानी पीढ़ी और राजनेताओं का राज नहीं है, भले ही वे अलगाववाद का समर्थन करते हों.
ऐसे लोग भी हैं जो वार्ता की बात करते हैं लेकिन ज्यादातर लोग वार्ता को कश्मीर समस्या का हल नहीं मानते. वे इसे अपने-अपने मतलब पूरा करने का तरीका भर मानते हैं. इस तरह कुल मिलाकर आज कश्मीर के हालात बुरी तरह बिगड़ चुके है.
First published: 2 November 2016, 8:23 IST