नोटों पर प्रतिबंध: कैसे यह फैसला बदलेगा चुनाव और रुपए का अंतरंग रिश्ता?

मंगलवार रात को अचानक लिए गए फैसले के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस वक्त तक देश में मौजूद 500 और 1,000 रुपये के करेंसी नोटों के प्रचलन पर रोक लगा दी. इस कड़े कदम को उठाने की वजह भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान बताने पर तमाम लोगों ने इसका स्वागत किया. जबकि कई लोगों ने इस फैसले की आलोचना करते हुए कहा कि इससे लोगों को परेशानी से जूझना पड़ेगा और मौद्रिक बाजार में अस्थितरता पैदा होगी.
इसका एक सकारात्मक परिणाम यह है कि इससे बाजार में चल रहे लाखों नकली नोट अस्थायी रूप से बाजार से बाहर हो जाएंगे. लेकिन एक महत्वपूर्ण सवाल अभी भी अनसुलझा रह गया हैः इलेक्शन फंडिंग का क्या होगा? यह एक जगजाहिर बात है कि भारत में चुनाव 'दान (डोनेशंस)' की रकम पर लड़े जाते हैं जिससे ब्लैक इकोनॉमी को बल मिलता है.
अगले कुछ महीनों में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. इसके मद्देनज़र एक चुटकुला व्हाट्स ऐप और तमाम सोशल मीडिया में चल रहा है कि भाजपा ने अपने फंड का इंतजाम कर लिया होगा इसके बाद नोटों पर प्रतिबंध लगाया है ताकि बाकी दलों की कमर टूट जाय. मजाक से इतर यह बड़ा सच है कि चुनाव पैसे का खेल है और राजनीतिक दल अपने पैसे का स्रोत अब तक उजागर नहीं करते हैं. इस परदेदारी के चलते हमारे चुनावों में काला धन बड़ी भूमिका अदा करता है. एडीआर जैसी संस्थाओं की तमाम रपटे इस पर रोशनी डालने के लिए देखी जा सकती हैं.
यहां हम संक्षेप में और सरल तरीके से भारतीय चुनाव और काले धन के अंतरंग रिश्तोंं को समझाने की कोशिश कर रहे हैं:
रुपये
- वर्ष 2014 में आयोजित लोकसभा चुुनाव के दौरान चुनाव आयोग ने पकड़े, जिनका कोई दावेदार नहीं है.
- आश्चर्यजनक रूप से इस चुनाव के विजयी उम्मीदवारों ने घोषणा की उन्होंने निर्धारित सीमा का केवल 58 फीसदी हिस्सा ही खर्च किया.
- लोकसभा चुनाव 2014 में औसतन हर सीट पर 55 करोड़ रुपये खर्च हुए.
रुपये
- मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक वर्ष 2015 में तमिलनाडु चुनाव के दौरान बरामद किए गए.
- इस चुनाव के दौरान कुल 5,000 करोड़ रुपये खर्च हुए.
- इस साल ही चुनाव आयोग ने बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान लावारिस 19 करोड़ रुपये बरामद किए.
- इस अर्थव्यवस्था में कालेधन का महत्वपूर्ण काम मतदाताओं को घूस देने और चुनाव प्रचार के दौरान खर्च में किया जाता है.
रुपये से भी ज्यादा
- की रकम 2014 लोकसभा चुनाव के दौरान सभी पार्टियों द्वारा खर्च की गई. यह बात सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज द्वारा किए गए अध्ययन में सामने आई.
- 2014 लोकसभा चुनाव में खर्च की गई रकम 2009 लोकसभा चुनावों की तुलना में करीब तीन गुना थी. इसके चलते यह भारतीय इतिहास का सबसे महंगा चुनाव बना. वहीं, 2012 अमेरिका चुनाव के बाद यह दुनिया का दूसरे नंबर का सबसे महंगा चुनाव बन गया.
- हिस्सा माना जाता है चुनाव खर्च को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का.
- 2014 में चुनाव आयोग ने लोकसभा उम्मीदवारों की खर्च की अधिकतम सीमा को 70 लाख रुपये कर दिया. लेकिन हकीकत यह है जिसे आयोग भी जानता है कि एक उम्मीदवार इस निर्धारित रकम का 50 गुना तक खर्च करता है.
रुपये
- एक सीट जीतने के लिए खर्च किए जाते हैं, यह बात 2012 में आयोजित एक सेमिनार के दौरान भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियों ने मानीं.
- दुर्भाग्यवश अभी भी राजनीतिक दल सूचना का अधिकार अधिनियम के अंतर्गत नहीं आते हैं. यहां तक की उन्हें 20,000 रुपये से कम के दान को घोषित करना भी जरूरी नहीं. जबकि 20,000 हजार देने वाले 10 लोग, इस रकम को 2 लाख बना देते हैं, जिसे बताने की पार्टियों के पास कोई जिम्मेदारी नहीं.
राजनीति में कालेधन से न केवल उम्मीदवारों को मदद मिलती है बल्कि यह उन्हें रईस भी बनाती है. उदाहरण स्वरूप 2014 में एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स द्वारा किए गए अध्ययन की मानें तो कांग्रेस के उम्मीदावारों की औसत संपत्ति 41 करोड़, भाजपा की 10 करोड़ और डीएमके की 10 करोड़ रुपये आंकी गई.
First published: 10 November 2016, 14:52 IST