नेताओं के आराम का क्लब बनी बीसीसीआई

- क्रिकेट में वैसी क्या बात है जो विरोधी नेताओं को एक साथ लाती है. जबकि राजनीतिक विरोध की वजह से कई अहम बिल संसद में लंबे समय से अटके हुए हैं. साफ तौर पर बीसीसीआई की पहुंच और इसकी वित्तीय ताकत, जिसके साथ न्यूनतम जवाबदेही जुड़ी हुई है.
- शशांक मनोहर के बोर्ड को छोड़ने और इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल में बतौर स्वतंत्र चेयरमैन की आराम वाली कुर्सी के लिए हामी भरने के बाद बीसीसीआई के प्रेसिडेंट का चुनाव हो रहा है.
- माना जा रहा है कि बीसीसीआई के सेक्रेटरी अनुराग ठाकुर बीसीसीआई के प्रेसिडेंट की कमान संभाल सकते हैं.
नेताओं से भरा बोर्ड
यह देखना दिलचस्प है कि कैसे राजनीति में एक दूसरे के धुर विरोधी नेता अपने मतभेदों को नजअंदाज करते हुए बीसीसीआई पर नियंत्रण की खातिर साथ चले आते हैं.
निश्चित तौर पर कई नेता, अधिकारी और उद्योगपति बोर्ड में रह चुके हैं. आखिरकार बोर्ड में कई लोग होते हैं और बीसीसीआई देश के भीतर के लोगों को बोर्ड में शामिल कर सकती है.
लेकिन क्रिकेट प्रशासन में वैसी क्या बात है जो विरोधी नेताओं को एक साथ लाती है. जबकि राजनीतिक विरोध की वजह से कई अहम बिल संसद में लंबे समय से अटके हुए हैं. साफ तौर पर बीसीसीआई की पहुंच और इसकी वित्तीय ताकत, जिसके साथ न्यूनतम जवाबदेही जुड़ी हुई है.
क्रिकेट में नेताओं की दिलचस्पी नई बात नहीं है. देश में प्रांतों के महाराजाओं ने खेल को आगे बढ़ाने में दिलचस्पी दिखाई. क्रिकेट और नेताओं के बीच के रिश्तेे को कभी खत्म नहीं किया जा सकता. दिल्ली के एक उद्योगपति जीई ग्रैंट गोवन बीसीसीआई के पहले प्रेसिडेंट रह चुके हैं.
1933-35 तक सिकंदर हयात खान, भोपाल के नवाब हमीदुल्लाह खान, के एम दिग्विजय सिंहजी से परमसिवन सुब्रमण्यन (1937-46) तक बीसीसीआई में रहे.
बड़ौदा के महाराज फतेहसिंहराव गायकवाड़ 1963-66 तक बीसीसीआई के मुखिया रहे जबकि सुरजीत सिंह मजीठिया 1956-58 तक इसकी जिम्मेदारी संभालते रहे. एसके वानखेड़े के पास इसकी कमान 1980-82 तक रही जबकि एनकेपी साल्वे 1982-85 तक. इसके बाद माधवराव सिंधिया 1990-93 तक बीसीसीआई के प्रेसिडेंट रहे. इसी तरह 2005-08 तक एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार बीसीसीआई के प्रेसिडेंट रहे.
1945 में कॉलमनिस्ट बेरी सर्बाधिकारी ने लिखा था कि कैसे भारत में खेल में राजनीतिक घुसी जिसका दूर-दूर तक क्रिकेट से कोई लेना देना नहीं था.
कुछ सालों बाद प्रोफेसर डीबी देवधर ने लिखा कैसे राजनीति ने सभी खेलों पर उल्टा असर डाला, खासकर क्रिकेट पर.
शायद हम अब उस व्यक्ति के बारे में ज्यादा जानने की कोशिश करते हैं जो खेल को चलाता है. इसलिए उन लोगों पर नजर जा टिकती है जिनके लिए बीसीसीआई आराम वाले क्लब की तरह है. ऐसे में किसी व्यक्ति को बोर्ड में कैसे शामिल किया जा सकता है जो बोर्ड के चुनाव हार चुका हो?
गजब की एकता
तो क्या बीसीसीआई एक खुश लोगों की संस्था है, जिनके बीच किसी तरह का मतभेद नहीं है? शुरुआत से इसमें गुटबंदी रही है, जो समय समय पर सामने आती रही है.
लेकिन जब कोई बाहरी खतरा आता है या फिर किसी के अंदर आने की संभावना होती है तो बोर्ड में शामिल लोगों में तुुरंत एकता आ जाती है. बोर्ड में दंड और पुरस्कार की लंबी परंपरा रही है.
बीसीसीआई में अपने वफादारों को या फिर विरोधियों को एकजुट करने के लिए समितियों में पोस्टिंग की जाती रही है
एक समय था जब चुनिंदा समितियों में अपने वफादारों को जगह दी जाती थी या फिर प्रतिद्वंद्वियों को एकसाथ बनाए रखने के लिए उन्हें ऐसी पोस्टिंग दी जाती थी.
पिछले कुछ सालों में आईपीएल की वजह से बीसीसीआई के राजस्व में बढ़ोतरी हुई हैै. ऐसे में समितियों में अपने वफादारों को पोस्टिंग देने की प्रवृत्ति बढ़ गई है.
जो लोग बीसीसीआई में अपनी जगह बनाना चाहते हैं, उनके लिए इस दुर्ग को तोड़ना मुश्किल हो रहा है. जो लोग ऐसा कर पाते हैं उन्हें इसकी कीमत चुकानी होती है. साथ ही उन्हें दंड भी भुगतना पड़ता है.
ललित मोदी, जगमोहन डालमिया या फिर एन श्रीनिवासन ऐसे कई नाम हैं, जिन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ी.
2006 में डालमिया में बोर्ड के ट्रेजरर, सचिव और प्रेसिडेंट भी रहे. इसके अलावा वह आईसीसी के भी प्रेसिडेंट रहे. बाद में उन्हें कथित अनियमितताओं के आरोप में जीवन भर का प्रतिबंध झेलना पड़ा. चार साल बाद हालांकि यह प्रतिबंध हटा लिया गया.
मोदी को 2010 में बीसीसीआई से निलंबित कर दिया गया और फिर तीन साल बाद कथित अनियमितता के आरोप में उन्हें आजीवन प्रतिबंध झेलना पड़ा.
आईओसी की मिसाल
हालांकि इस तरह के पैंतरे आजमाने वाली बीसीसीआई एकमात्र ईकाई नहीं है. इंटरनेशनल ओलंपिक कमेेटी ने भी इस मामले में कोई मिसाल कायम नहीं की.
हालांकि 2002 के शीतकालीन ओलंपिक खेल में स्कैं डल का खुलासा होने के बाद सुधार की कोशिश तेज हुई लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकला. फिलहाल 70 सदस्यों के हाथ में आईओसी की कमान होती है.
बहुत हद तक आईओसी एक विशेेष क्लब है. पूर्वं आईओसी के वाइस पे्रेसिडेंट और एक बार प्रेसिडेंट के उम्मीदवार रहे रिचर्ड पॉन्ड ने बताया कि आईओसी किस तरह से किसी बदलाव का विरोध करती है. निश्चित तौर पर उनका निशाना यूरोपीय प्रशासकों पर था जो अधिकांश खेलों को नियंत्रित करते हैं.
2008 में उन्होंने कहा था, '114 सालों के इतिहास में केवल एक प्रेसिडेंट एवेरी बं्रडेज गैर यूरोपीय थे. अंतरराष्ट्रीय खेल संघों में यूरोपीय प्रशासकों की संख्या के आंकड़ों का विश्लेेषण चौंकाने वाला हो सकता है.'
पॉन्ड ने बताया कि किस तरह आईओसी का प्रभाव दुनिया में खेलों पर बढ़ रहा है क्योंकि प्रसारण अधिकारों की बिक्री से आने वाले राजस्व में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है.
बीसीसीआई की भी कहानी इससे कुछ अलग नहीं दिखाई देती है. 1928 में बनी बीसीसीआई एक चैरिटेबल सोसाएटी की तरह काम करती है. पिछले कुछ सालों में अदालतों ने यह पाया कि बीसीसीआई चैरिटेबल सोसाएटी की तरह तो बिलकुल भी काम नहीं करती है.
ऐसे में बदलाव का एकमात्र तरीका यह है कि इसे संसद में कानून लाकर बदला जाए. हालांकि कई प्रभावशाली सदस्यों के विधायिका में होने की वजह से सब कुछ सुप्रीम कोर्ट पर ही निर्भर है जो बंद पड़ी इस संस्था को बदल सकती है.
First published: 22 May 2016, 9:00 IST